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सनातन धर्म का कवच रहे अखाड़े

अखाड़ों की गतिविधियां श्रद्धालुओं के लिए अजूबा रही हैं लेकिन इनका इतिहास इस बात का साक्षी है कि ये सनातन धर्म की रक्षा के लिए हमेशा कवच बने रहे। इसके लिए जरूरत पड़ने पर उन्होंने शस्त्र भी उठाया। भारतीय संस्कृति के संरक्षण में इनका महती योगदान माना जाता है।

By Edited By: Published: Tue, 08 Jan 2013 02:43 PM (IST)Updated: Tue, 08 Jan 2013 02:43 PM (IST)
सनातन धर्म का कवच रहे अखाड़े

इलाहाबाद, [शरद द्विवेदी]। अखाड़ों की गतिविधियां श्रद्धालुओं के लिए अजूबा रही हैं लेकिन इनका इतिहास इस बात का साक्षी है कि ये सनातन धर्म की रक्षा के लिए हमेशा कवच बने रहे। इसके लिए जरूरत पड़ने पर उन्होंने शस्त्र भी उठाया। भारतीय संस्कृति के संरक्षण में इनका महती योगदान माना जाता है।

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अखाड़ों के इतिहास की कथा आदि शंकर के सनातन धर्म को बचाने के प्रयासों से जुड़ी हुई है। आदिगुरु शंकराचार्य 1300 संवत ईसवीं में दंड लेकर सनातन धर्म की रक्षा के लिए भारत भ्रमण पर निकले तो उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कई स्थानों पर शास्त्रार्थ करके उन्होंने दूसरे धर्म के लोगों को पराजित कर उन्हें सनातन धर्म अपनाने को विवश किया। उस दौर में दक्षिण भारत में कापालिक सम्प्रदाय का आतंक था। वह लोगों की हत्या करके अपने आराध्य भैरव को चढ़ाते थे। आदि शंकराचार्य ने इसका विरोध किया, तो वह उनका खात्मा करने की साजिश रचने लगे। एक कापालिक अपने छल से उन्हें लेकर कापालिकों की बस्ती में पहुंच गया। वहां आदिशंकराचार्य की हत्या का कुचक्र रचा जाने लगा। यह देख आदि शंकराचार्य ने उनसे ध्यान के लिए कुछ समय मांगा। आदि शंकराचार्य के कुटिया में न रहने पर उनके शिष्य राजस्थान के राजा महाराज सुधन्नवा व सुरेश्वाराचार्य खोज करते-करते कापालिकों की बस्ती पहुंचे। उन्होंने पांच कापालिकों का कत्ल करके आदि शंकराचार्य को वहां से बचाया।

इस घटना के बाद आदि शंकराचार्य को एहसास हुआ कि आने वाले दिनों में भी सनातन धर्म के अनुयायियों को ऐसे कुचक्रों का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने वहां मौजूद सुरेश्वरानंद, महाराज सुधन्नवा व उनके सैनिकों को सनातन धर्म की रक्षा के लिए दीक्षा दी, जो जूना अखाड़ा बना। इसी में गिरि, पुरी, भारती, वन, पर्वत, अरण्य, सागर, आश्रम, तीर्थ, सरस्वती नाम के दशनामी शिष्य हुए जो धर्म की रक्षा के अस्त्र-शस्त्र से युद्ध करते थे। दंडी स्वामी इसी में निकले, लेकिन सिर्फ ब्राह्मण सन्यासियों को ही दंड लेने का विधान बना। बिना दंड वालों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सम्प्रदाय के महंत शामिल हुए।

आगे चलकर राजा सुधन्नवा के वंशज महाराज हिम्मत सिंह ने 1340 संवत ईसवी में अखाड़ा का विस्तार किया। इसके बाद अग्नि, आह्वान, अटल, निरंजनी, निर्वाणी, महानिर्वाणी, आनंद, बड़ा उदासीन, नया उदासीन, दिगंबर, निर्मोही, निर्मल बने। ये अन्य संप्रदायों से युद्ध करके विजयी होने पर उसकी संपत्ति पर कब्जा कर लेते थे। इसमें दिगंबर, निर्मोही व महानिर्वाणी बैरागी के हैं, जबकि अन्य संन्यासी के अखाड़ा हैं। बैरागी शिखासूत्र (जनेऊ व चोटिया) रखते हैं ये श्रीराम के अनुयायी होते हैं। जबकि संन्यासी संप्रदाय के अखाड़ा शिखासूत्र नहीं रखते व शिव के अनुयायी होते हैं।

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