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सादगी से बता रहे संगम नगरी का सच

तमाम सरकारी दस्तावेजों मे एक बात बार-बार कही गई है कि संगमनगरी इलाहाबाद में गंगा और यमुना पर खतरा सबसे ज्यादा है।

By Edited By: Published: Wed, 18 Apr 2012 12:57 PM (IST)Updated: Wed, 18 Apr 2012 12:57 PM (IST)
सादगी से बता रहे संगम नगरी का सच

इलाहाबाद। तमाम सरकारी दस्तावेजों मे एक बात बार-बार कही गई है कि संगमनगरी इलाहाबाद में गंगा और यमुना पर खतरा सबसे ज्यादा है। पवित्र संगम तट पर जहां हर साल माघ मेला, अर्धकुंभ और महाकुंभ का आयोजन किया जाता है, स्थानीय लोगों के प्रयास से मेले और कुंभ में आए लोगों को संगम की खराब दशा के प्रति और नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए एक प्रदर्शनी का आयोजन तीन दशक से अनवरत हो रहा है। यह छोटा प्रयास वास्तव में उतना छोटा भी नहीं है। दरअसल, सादगी से सच बताने की यह ऐसी कोशिश है, जिससे हर साल माघमेले के दौरान लगभग 25 लाख रुबरू होते हैं। गंगा की स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मानक के अनुसार पीने योग्य जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 6 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम नहीं होनी चाहिए। लेकिन कानुपर से लेकर इलाहाबाद, बनारस और कोलकाता तक यह कहीं भी 3.5 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक नहीं है। सच तो यह है कि यह मानक देवप्रयाग उत्तराखंड को छोड़कर कहीं भी पूरा नहीं होता। इलाहाबाद विवि के वनस्पति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष और गंगा सफाई के अभियान से जुड़े प्रो. दीनानाथ शुक्ला दीन कहते हैं यह खतरे का संकेत है। उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक गंगा में जल की मात्रा नहीं बढ़ाई जाती, प्रदूषण से मुक्ति संभव नहीं है। जैवीय ऑक्सीजन मांग 3 मिली लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। लेकिन कोलकाता में यह अधिकतम 74.8 मिलीग्राम प्रति लीटर है। इलाहाबाद में भी यह दहाई से ऊपर है। संगम नगरी में दर्जनों नाले गंगा में गिर रहे हैं। इस सबके प्रति लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रो. दीनानाथ शुक्ला ने 1981-82 में संगम क्षेत्र में एक प्रदर्शनी लगाई जिसका नाम देव नदी गंगा व यमुना जल प्रदूषण निवारण प्रदर्शनी का आयोजन कर रहे हैं। प्रो. शुक्ल बताते हैं कि विश्वविद्यालय के तमाम शिक्षकों ने उनका इस कार्य में उत्साहवर्धन किया।

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इसके अलावा तमाम विभागों के शोध छात्र स्वत: इस प्रदर्शनी से जुड़ते हैं। यही कारण है कि लगातार तीन दशक से यह प्रदर्शनी अपने तरीके से लोगों को प्रेरित कर रही है। गंगा की रक्षा के इस पुनीत काम में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित किए बिना इस महान कार्य को केवल सरकारी एजेंसियों या एनजीओ के माध्यम से नहीं किया जा सकता। इसी उद्देश्य से यह प्रदर्शनी लगाई गई। लोगों को संवेदनशील बनाने का एक प्रमुख प्रयास था। शोध छात्रों, अन्य छात्र-छात्राओं व स्वयंसेवकों के सहयोग से यह कार्य आज भी अनवरत जारी है। पत्रिका, विचार गोष्ठी, संत सम्मेलन, पर्यावरण रैली, निबंध, चित्रकला, वाद विवाद प्रतियोगिता, गायन, स्लोगन व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए मेले में आए लोगों को जागरूक बनाने का यह कार्य किया जा रहा है। प्रो. शुक्ल बताते हैं कि सबके सहयोग शुरू किया गया यह अभियान आज एक पर्व का रूप ले चुका है।

और सिर्फ शेष रह जाता है हालात पर रोना-

कुंभ का आयोजन प्रयाग वासियों के लिए किसी बड़े उत्सव से कम नहीं होता। बारह वर्ष का लंबा इंतजार भी बेहतरी की आस लिए गुजर जाता है। आखिर मामला आस्था से जुड़ा जो है। हालांकि इस आयोजन के बाद भी यहां के लोगों की तकदीर नहीं बदलती। समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं और इंतजार का यह सिलसिला साल दर साल चलता रहता है। गंगा और यमुना प्रयाग वासियों के लिए जीवन धारा हैं। ऐसा नहीं कि दोनों नदियां सिर्फ इसी शहर के लोगों के लिए महत्व रखती हैं लेकिन दोनों का मिलन तो सिर्फ इलाहाबाद में ही होता है। इसलिए कुंभ के आयोजन के दौरान यह शहर संस्कृतियों के साथ ही सभ्यताओं के मिलन का केन्द्र भी बन जाता है। पर इस आयोजन से जुड़ी शहर के लाखों लोगों की आस तो धरी की धरी रह जाती है। आंकड़ों की बात करें तो कुंभ के दौरान सिर्फ नैनी क्षेत्र में ही लगभग तीस लाख लोग स्नान करते हैं और लगभग पचास हजार लोग मेले का आनंद उठाते हैं। क्षेत्र में कल्पवासियों के लिए सैकड़ों की संख्या में अस्थाई आवास बनते हैं। सुरक्षा कर्मियों और विभिन्न सरकारी विभागों के साथ ही धार्मिक संस्थाओं के कार्यालय भी यहां बसते हैं। पर इतने बड़े आयोजन के लिए अब तक कोई स्थाई कार्यालय या निर्माण नहीं हो सका है। अरैल में बांध रोड़ से घाट को जोड़ने के लिए लगभग दो सौ मीटर सीसी रोड का निर्माण हुआ जरूर लेकिन गुणवत्ता के अभाव में वह भी स्मारक के रूप में ही बची है। त्रिवेणी पुष्प, सोमेश्‌र्र्वर महादेव मंदिर और अरैल व देवरख के दर्जनों आश्रमों की हालत जस की तस बनी हुई है। इन मंदिरों व आश्रमों के लिए न तो सरकार की ओर से कोई योजना या मदद की पेशकश हुई न ही प्राचीन स्मारकों और मंदिरों को बचाने की कोशिश।

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