सम्यक जिंदगी जीने का रास्ता तलाशे
सुख, शांति और सदाचार को यदि जिंदगी का हिस्सा बनाना है तो संसार में त्याग की भावना से मिलकर रहना सीखना चाहिए। भोग को त्याग के साथ भोगने पर कभी आसक्ति पैदा नहीं होती और जब इंसान में आसक्ति नहीं पैदा होती है तो उसे किसी को खोने में विशेष दुख और प्राप्त करने में विशेष खुशी भी नहीं होती है।
सुख, शांति और सदाचार को यदि जिंदगी का हिस्सा बनाना है तो संसार में त्याग की भावना से मिलकर रहना सीखना चाहिए। भोग को त्याग के साथ भोगने पर कभी आसक्ति पैदा नहीं होती और जब इंसान में आसक्ति नहीं पैदा होती है तो उसे किसी को खोने में विशेष दुख और प्राप्त करने में विशेष खुशी भी नहीं होती है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने त्याग के साथ बेहतर जिंदगी जीने का रास्ता बताया। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में देखने को भी यही मिलता है। हम जिस वस्तु या विषय से अधिक लगाव रखते हैं, उसके खो जाने पर हम दुखी भी उतने होते हैं जितने उसे पाने पर। इसलिए बेहतर तो यही है कि हम सम्यक जिंदगी जीने का रास्ता तलाश करें। वेदों और उपनिषदों में यह रास्ता बताया गया है। वह रास्ता है- अध्यात्म का। अध्यात्म यह बताता है कि कोई भी वस्तु या विषय कैसा है और हमें उसे कैसे व कितना उपयोग करना चाहिए।
पूजा-पाठ, जप-तप, योग-साधना और सत्संग करना अध्यात्म नहीं है। ये तो अध्यात्म की तरफ ले जाने के उपाय मात्र हैं। हमारा अध्यात्म यानी विशेष ध्येय तो मोक्ष को हासिल करना है। उपरोक्त तरीकों से हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं, लेकिन इन्हें बेहतर तरीके से करना आना चाहिए। इसीलिए गुरु की शरण में जाने की बात की गई है। लेकिन गुरु भी बहुत सोच-समझ कर बनाना चाहिए। वेद में कहा गया है कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों में संतुलन होना चाहिए। जब संतुलन होता है तो व्यक्ति में कभी आसक्ति पैदा ही नहीं होती है। आसक्ति तब पैदा होती है जब हम एकांगी हो जाते हैं। हमारे ऋषि-महर्षि कहते थे कि मनुष्य को दुनिया में आकर कर्म करना चाहिए। कर्म ऐसा हो जो भोग की तरफ नहीं, बल्कि अभोग की तरफ ले जाए। परमात्मा ने हमारे अंदर असीम ऊर्जा दी है। हम अपनी ऊर्जा का उपयोग किस रूप में कर रहे हैं, यह महत्वपूर्ण है। हम अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल अपने विकास के लिए सार्थक और सच के रास्ते पर चलकर कर रहे हैं कि बगैर सोचे-समझे, इस पर विचार करना जरूरी है।
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