धर्म की जटिलता से अध्यात्म की सरलता अधिक व्यावहारिक है
प्रजातांत्रिक प्रणाली में शासन की नहीं आत्मानुशासन की आवश्यकता है। अच्छे नेतृत्व के लिए स्वयं को आदर्श रूप में प्रस्तुत न करने से आलोचना का सामना करना असह्य हो जाता है और इससे अपने कर्तव्यपालन में अड़चनें आती हैं।
प्रजातांत्रिक प्रणाली में शासन की नहीं आत्मानुशासन की आवश्यकता है। अच्छे नेतृत्व के लिए स्वयं को आदर्श रूप में प्रस्तुत न करने से आलोचना का सामना करना असह्य हो जाता है और इससे अपने कर्तव्यपालन में अड़चनें आती हैं। प्रशासन किसी भी तंत्र को तभी सफल बनाता है जब वह शासक से पूर्ण तादात्म्य स्थापित करता है। धर्म में इसकी चर्चा करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने मुखिया की प्रमुखता इन शब्दों में बताई है, मुखिया को मुख के समान होना चाहिए जो ग्रहण करके, कुछ भी अपने पास नहीं रखता। वह अपने सभी अंगों का पालनपोषण विवेकपूर्ण तरीके से करता है। ऐसी स्थिति में स्पष्टता, सरलता और सहजता आती है। यदि यह न हो तो अंग अपना कर्तव्य नहीं निभाते और मुख को भी अपना आहार प्राप्त नहीं होता।
कुशल प्रबंधन के लिए नियमों की जटिलता से काम नहीं चलता। आध्यात्मिकता की आवश्यकता होती है। प्रशासक और शासित का द्वैत समाप्त करना चाहिए। दोनों के कर्तव्य और परिणाम धर्म में निरूपित किए जाते हैं, अध्यात्म में नहीं। धर्म की जटिलता से अध्यात्म की सरलता अधिक व्यावहारिक है। माता और शिशु की स्नेह वत्सलता में धर्म नहीं आध्यात्मिकता है। राजनीति में भी आध्यात्मिकता का महत्व है। इसके द्वैत के चलते तनाव दूर नहीं किए जा सकते। पक्षपात से मुक्ति नहीं मिलती। आलोचनाओं की पीड़ा बनी रहती है।
आध्यात्मिक का प्राण है भक्ति। इसमें स्वार्थ का कोई स्थान नहीं। इसमें भेदभाव का औचित्य नहीं। एक ही स्वामी, हम ही सेवक। हम जो करते हैं, अपने लिए करते हैं। इसमें न अवसाद है, न निराशा। आशा का अनंत आकाश है। सीमा का विस्तार ही विस्तार है। सारा संसार हमारा है, हमारे लिए है। अपने देश में नियम हैं, कर्मकांड हैं, कर्तव्य प्रमुख मान्यताएं हैं। इन्हीं आधार पर हम जटिलताओं से हम सरलता की ओर आगे बढ़ते हैं। अनेकता में एकता के लिए आधारभूत आध्यात्मिकता है। यह आध्यात्मिकता धर्मो को जोड़ती है। विभिन्नताओं में अभिन्नता का कारण बनती है। अत: इस आध्यात्मिकता की आवश्यकता हर जगह व्यावहारिक है।
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