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निष्काम भजो हरि नाम

ऋषि-मुनियों ने पुरुषोत्तम मास में निष्काम उपासना का विधान इसीलिए बनाया है कि हम कुछ समय सांसारिक तृष्णाओं को त्यागकर आध्यात्मिक लाभ उठा सकें और अपने जीवन को कर्म के लिए प्रेरित कर सकें।

By Edited By: Published: Wed, 22 Aug 2012 12:00 PM (IST)Updated: Wed, 22 Aug 2012 12:00 PM (IST)
निष्काम भजो हरि नाम

शास्त्रों में कहा गया है कि पुरुषोत्तम मास में निष्काम भाव से हरि को याद करना चाहिए, किसी सांसारिक कामना की पूर्ति के उद्देश्य से नहीं। वस्तुत: इच्छाओं की अग्नि इतनी प्रचंड होती है कि उसमें जितनी भी आहुति डालो, सब स्वाहा हो जाता है। चाहे जितनी भी इच्छाएं पूर्ण हो जाएं, कामना की आग उतनी ही भड़कती है और चित्त की शांति को जलाती है। सच्ची आराधना वह है, जिसमें निष्काम भाव अर्थात बिना किसी लोभ या लालच से भगवान को समर्पित हुआ जाए और सेवा कर्म किया जाए। जो कुछ भी हमें ईश्वर ने दिया है, उसके लिए प्रभु का धन्यवाद देना चाहिए। जो मिला है, उसे प्रभु का प्रसाद ही समझकर ग्रहण करें। हमेशा यही भावना रखें कि भगवान जो कुछ करेंगे, उसमें ही मेरी भलाई है। जब मन में यह भाव जाग जाएगा, तब वह निष्काम आराधना का मर्म समझ में आएगा और व्यक्ति जीवन में अधिक विचलित नहीं होगा।

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श्रीमद्भगवद्गीता (9-22) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन वर्णित है- अनन्या›िन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ अर्थात जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मेरा निरंतर ध्यान करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर चिंतन करने वाले पुरुषों का योग-क्षेम मैं उन्हें स्वयं प्राप्त करा देता हूं। अप्राप्त की उपलब्धि योग और प्राप्त की रक्षा क्षेम है। इस श्लोक का भाव यह भी है कि निष्काम भक्त को भगवान का सहारा मिलता है। भक्ति से सहारा मिलता है, लेकिन सहारा पाने के लिए भक्ति उचित नहीं।

वस्तुत: ऋषि-मुनियों ने पुरुषोत्तम मास में निष्काम उपासना का विधान इसीलिए बनाया है ताकि हम सांसारिक तृष्णाओं को त्यागकर आध्यात्मिक लाभ उठाने और अपने जीवन को कर्म के लिए प्रवृत्त करने का अभ्यास कर सकें।

पुरुषोत्तम मास भारतीय काल-गणना पद्धति से उपजा है। यह गणना अध्यात्म के साथ-साथ विज्ञान की कसौटी पर भी खरी उतरती है। काल के प्रमुख पांच अंगों- तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण को प्रस्तुत करने वाली पद्धति पंचांग कहलाती है। भारत के अधिकांश पंचांग चंद्र-संवत्सर के प्रारूप में बनते हैं। इनमें सामान्यत: 12 चंद्र मास होते हैं, लेकिन हर तीसरे वर्ष (संवत्सर) में अधिक मास होने के कारण 13 मास होते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय काल-गणित में चंद्र वर्ष लगभग 354 दिन 22 पल 30 विपल का माना जाता है, जबकि सौर वर्ष 365 दिन 6 घंटे 11 सेकेंड का होता है। अतएव इन दोनों का अंतर अधिक मास के माध्यम से पूर्ण किया जाता है। ग्रंथ पुरुषार्थ चिंतामणि के अनुसार, सामान्यत: 28 मास से 36 मास की अवधि में अधिक मास आता है। वर्तमान विक्रम संवत्सर 2069 में दो भाद्रपद मास हैं। इनमें अधिक भाद्रपद मास 18 अगस्त से 16 सितंबर 2012 तक रहेगा। ब्रšासिद्धांत के अनुसार, संक्रांतिविहीन चंद्रमास को अधिक मास कहा जाता है। इसे ही मलमास भी कहा जाता है।

पुराणों में अधिकमास (मलमास) के पुरुषोत्तम मास बनने की रोचक कथा है। उसके अनुसार, स्वामी-विहीन होने के कारण अधिकमास को मलमास कहकर उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इस बात से दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनसे दुखड़ा रोया। भक्तवत्सल श्रीहरि उसे लेकर गोलोक पहुचे। वहां श्रीकृष्ण विराजमान थे। करुणासिंधु भगवान श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया- अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूं। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुममें समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूं और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूं। आज से तुम मलमास के बजाय पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे। प्रति तीसरे वर्ष (संवत्सर) में तुम्हारे आगमन पर जो व्यक्ति श्रद्धा-भक्ति के साथ कुछ अच्छे कार्य करेगा, उसे कई गुना पुण्य मिलेगा।

इस प्रकार भगवान ने अनुपयोगी हो चुके अधिक मास को धर्म और कर्म के लिए उपयोगी बना दिया।

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