अध्यात्म और विज्ञान दोनों एकदूसरे के पूरक है
विज्ञान ने जितनी लगन के साथ परमात्मा को अनावृत करने का वृत लिया है उतनी तीव्रता के साथ साधकों ने उसे पाने की लालसा नहीं दिखाई।
विज्ञान ने जितनी लगन के साथ परमात्मा को अनावृत करने का वृत लिया है उतनी तीव्रता के साथ साधकों ने उसे पाने की लालसा नहीं दिखाई। इसका प्रमाण है कि विज्ञान परमात्मा की सृष्टि के रहस्य की पर्त दर पर्त खोलता ही नहीं जा रहा है, बल्कि वह उसके समानांतर नई रचना का एक संसार भी बसाता चल रहा है। रोबो की रचना और मानव रहित विमानों, मिसाइलों का निर्माण तथा उनसे अपनी मर्जी के मुताबिक काम लेना इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। किंतु मानव प्रचीन ऋषि-मुनियों तथा शास्त्रों के बताए मार्ग पर नए अनुसंधान न कर परमात्मा के प्रति मनुष्य मात्र में व्याप्त आस्था का व्यापारिक दोहन कर समाज में अपने आचरण से अनजाने, अनचाहे अनास्था के वातावरण का सृजन कर रहा है। अध्यात्म वैयक्तिक अनुभव तथा आंतरिक चेतना के उस तेज को जागृत करने की साधना का नाम है जो परमात्मा से मिलने का मार्ग प्रशस्त करता है। अध्यात्म और विज्ञान दोनों एकदूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। आत्मज्ञान श्रेष्ठतम ज्ञान है और विज्ञान उस श्रेष्ठता का पुष्टिकर्ता तथा प्रत्यक्ष करने वाला माध्यम है।
गीता के दसवें अध्याय का मनन करने से ब्रहृमज्ञान और विज्ञान के बीच का विरोधात्मक द्वैत समाप्त हो जाता है। तब विज्ञान हमें परमात्मा की पुष्टि कराता प्रतीत होता है। गीता के एक श्लोक के भाव का रूपांतर है तुलसीदास की यह चौपाई-उर प्रेरक रघुवंश विभूषण अर्थात यदि हम न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के पीछे वृक्ष के फल का धरती पर टूटकर गिरना कारण मानते हैं तो यह प्रक्त्रिया तो वृक्ष और फल के अस्तित्व में आने के समय से ही चल रही है। पर न्यूटन के अंदर विराजमान परमात्मा ने अचानक उसे फल नीचे ही गिरने के कारण पर सोचने की प्रेरणा दी। इस कारण चिंतन, तर्क-वितर्क के समस्त पल न्यूटन की साधना की प्रक्त्रिया का प्रतीक हैं। उसे भी प्रकारांतर से अध्यात्म साधक की भांति परमात्मा की उपलब्धि हुई उसे गुरुत्वाकर्षण नाम से संबोधित किया। परमात्मा विज्ञान के द्वारा अपने उस रूप को, अपनी उस चेतन शक्ति को उद्घाटित करा रहा है जो ब्रहृमज्ञानी नहीं कर सकता।
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