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शंकराचार्यो के लिए है चिह्न धारण का विधान

महाराजा सुधन्वा ने आद्यशंकराचार्य जी से अत्यंत आग्रहपूर्वक शांकरपीठों के पीठाधिपति शंकराचार्यो को धर्म रक्षार्थ देवराज इन्द्र की भांति छत्र, चँवर, सिंहासन धारण करने का निवेदन किया था। उनके इस आग्रह को पूज्यपाद आद्य शंकर द्वारा स्वीकार किया गया।

By Edited By: Published: Tue, 22 Jan 2013 04:28 PM (IST)Updated: Tue, 22 Jan 2013 04:28 PM (IST)
शंकराचार्यो के लिए है चिह्न धारण का विधान

महाराजा सुधन्वा ने आद्यशंकराचार्य जी से अत्यंत आग्रहपूर्वक शांकरपीठों के पीठाधिपति शंकराचार्यो को धर्म रक्षार्थ देवराज इन्द्र की भांति छत्र, चँवर, सिंहासन धारण करने का निवेदन किया था। उनके इस आग्रह को पूज्यपाद आद्य शंकर द्वारा स्वीकार किया गया। धर्म की स्थापना, उसके प्रचार-प्रसार और भौम तीर्थो यथा-प्रयागादि कुम्भादि पर्वो पर एक धर्म सम्राट की तरह छत्र चांवरादि धारण करने का निर्देश आद्य शंकराचार्य ने भावी पीठाचार्यो को दिया। आज भी चारों पीठों के शंकराचार्यो द्वारा कुंभ आदि पर्वो किंवा अवसरों पर इस परंपरा का पालन किया जाता है। श्रृंगेरीपीठ में आज भी हैदर अली के पुत्र सम्राट टीपू सुल्तान द्वारा प्रदत्त मुकुट वहां के शंकराचार्य जी के पास विद्यमान है।

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सुघन्वन: समौत्सुक्यनिवृत्त्यै धर्म-हेतवे।

देवराजोपचारांश्च यथावदनु पालयेत।।

आचार्य शंकर के अनुसार राजचिह्न धारण करने वाले धर्माचार्यो को पद्मपुत्र की तरह निर्लिप्त रहकर इस वैभव का निर्वाह करना चाहिए। राजचिह्न धारण का पात्र केवल पीठ का अधिपति ही है। यह व्यवस्था संन्यासी के लिए नहीं है। अत: जो लोग यह संदेह करते हैं कि संन्यासी तो मात्र दण्ड-कमंडल के ही धारक हैं। छत्र-चँवर से उनका क्या प्रयोजन है। इसका भी उत्तर भगवत्पाद द्वारा अत्यंत विनम्रता के साथ दिया गया कि धर्म से विमुख लोगों को धर्मपथानुगामी बनाने तथा परोपकार की भावना से ही ब्रंानिष्ठ आचार्यो के लिए ऐसे वैभव का विधान बनाया गया। इसीलिए लोक को चाहिए कि मनसा, वाचा, कर्मणा अपने अपने संबंधित गुरु-पीठ की अर्चना करे। जिस प्रकार पृथ्वीपालक राजा अपनी प्रजा से कर लेने का अधिकारी है, उसी प्रकार अधिकार प्राप्त पीठाधीश्वर भी धर्मानुसार कर लेने के अधिकारी हैं।

केवलं धर्ममुद्दिश्य विभवो ब्रंाचेतसाम्।

विहितश्चोपकाराय-पद्मपत्रनयं व्रजेत्।।

चातुर्व‌र्ण्य यथायोग्यं वाड्.मन: कायकर्मभि:

गुरो:पीठं समर्चेत-विभागानुक्त्रमेण वै।।

धरामालब्य राजान: प्रजाभ्य: करभागिन:।

कृताधिकारा आचार्या- धर्मस्तद्वदेव हि।।

आद्य शंकराचार्य जी का अभिमत था कि मानव का मूल धर्म है, वह आचार्य पर निर्भर है, क्योंकि सामान्य जन को धर्म के तत्वों का ज्ञान नहीं होता, धर्माचार्य लोग अपने अनुभूतिजन्य ज्ञान से कर्तव्य कर्म का उपदेश देते हैं इसलिए आचार्यरूपी अनमोलमणि का शासन सर्वोपरि है। अत: सर्वतोभावेन उदारचरितवाले आचार्य का शासन सभी को स्वीकार करना चाहिए। विश्व के रक्षार्थ धर्म का यह उपदिष्ट मार्ग ही सभी वर्गो तथा सभी आश्रमों (ब्रंाचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास) के लोगों के लिए अनुकरणीय और मर्यादानुकूल है-

धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बन:।

तस्मादाचार्यसुमणे: शासनं सर्वतोधिकम्।।

तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन शासनं सर्वसम्मतम्।

आचार्यस्य विशेषण ह्यौदार्यभर भागिन:।।

धर्मस्य पद्धतिह्यौषा जगत: स्थितिहेतवे।

सर्ववर्णाश्रमाणां हि यथाशास्त्रं विधीयते।।

वैदिक सनातन धर्म के रक्षार्थ आद्य शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना किया। तदन्तर सात धर्म-सैनिक अखाड़ों का निर्माण हुआ। इन अखाड़ों का सनातन संस्कृति की रक्षा में तो योगदान है ही कुंभ पर्व में इन अखाड़ों के साधुओं व नागाओं की उपस्थिति कुंभ पर्व के सौन्दर्य व आध्यात्मिक गरिमा को सुदृढ़ बनाती है। ये सात अखाड़े तीन भागों में विभक्त हैं। जिनमें महानिर्वाणी के साथ अटल, निरंजनी के साथ आनंद तथा जूना अखाड़े के साथ आवाहन व अग्नि अखाड़े रहते हैं। कुंभ पर्व के अवसर पर संपादित होने वाले शाही स्नान हेतु इसी क्त्रम में ये अखाड़े स्नान को आते हैं। इन सात अखाड़ों में से दो अखाड़े-निरंजनी व निर्वाणी में मादक पदार्थ का प्रयोग निषिद्ध है। शेष अखाड़ों में यह बात नहीं है।

कुंभ दशनामी नागा संन्यासियों का आध्यात्मिक स्वरूप

कुंभ पर्व पर प्रयाग आने वाले दशनामी नागा संन्यासी चाहे वह किसी भी संघ से संबद्ध हों अपने धार्मिक आध्यात्मिक कार्यो का संपादन अत्यंत आस्था के साथ करते हैं। साधना की दृष्टि से ये संन्यासी चार श्रेणियों में निबद्ध होते हैं। कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस।

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