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अमृत मंथन

इंसान ने अपनी भौतिक सुविधाओं को इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसकी पूर्ति करने में ही उलझा है। वह इसकी व्यवस्था करने में तरह-तरह का हथकंडा अपनाता है। उसे खुद के बजाय दूसरों के बारे में सोचने की फुरसत नहीं है।

By Edited By: Published: Tue, 22 Jan 2013 12:15 PM (IST)Updated: Tue, 22 Jan 2013 12:15 PM (IST)
अमृत मंथन

इंसान ने अपनी भौतिक सुविधाओं को इतना अधिक बढ़ा लिया है कि उसकी पूर्ति करने में ही उलझा है। वह इसकी व्यवस्था करने में तरह-तरह का हथकंडा अपनाता है। उसे खुद के बजाय दूसरों के बारे में सोचने की फुरसत नहीं है। सब कुछ चिंता और चिंतन में सिमटा है। किसी को अपनी सुख सुविधाओं को बढ़ाने की चिंता है किसी को दूसरों को नीचा दिखाने के लिए चिंतन करना पड़ रहा है। मानसिक विकृतियां यहीं से बढ़ती हैं, शरीर के रोग-व्याधि ग्रस्त होने का भी यही कारण है। इंसान समय रहते उसे समझ नहीं पाता। समझ आते-आते काफी विलंब हो जाता है। बाद में वह संतों के पीछे भागता है, धार्मिक अनुष्ठान कराकर कल्याण की कामना करता है। इसके बाद भी दुख उसका पीछा नहीं छोड़ता। यह कहना है आहृवान अखाड़ा के महामंडलेश्‌र्र्वर डॉ. स्वामी ब्रह्मांडपुरी का।

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