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महाकाली मंदिर

करीब 140 वर्ष पहले जींद रियासत के महाराज द्वारा निर्मित मंदिर श्री महाकाली माता आज भी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है। ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति सच्चे दिल से यहां अपनी मुराद मांगता है, उसकी मुराद पूरी हो जाती है।

By Edited By: Published: Fri, 19 Oct 2012 12:03 PM (IST)Updated: Fri, 19 Oct 2012 12:03 PM (IST)
महाकाली मंदिर

संगरूर। करीब 140 वर्ष पहले जींद रियासत के महाराज द्वारा निर्मित मंदिर श्री महाकाली माता आज भी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बना हुआ है। ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति सच्चे दिल से यहां अपनी मुराद मांगता है, उसकी मुराद पूरी हो जाती है।

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मंदिर का इतिहास-

21 मार्च 1864 को जब रघुवीर सिंह रियासत जींद के राज सिंहासन पर विराजमान हुए, तभी उनके दिल में संगरूर को रियासत की राजधानी बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने गुप्त रूप से इसका नक्शा बनवाने की खातिर अपने नक्शा नवीसों को जयपुर जाने का आदेश दिया, ताकि वहां से शहर का नक्शा बनवाकर ले आएं, जिसकी नकल पर संगरूर का निर्माण किया जा सके। जब जयपुर के नक्शे पर निर्माण की स्वीकृति महाराज ने दी तो संगरूर नगर के निर्माण का कार्य आरंभ हो गया। प्रत्येक धर्म में आस्था रखने वाले महाराज ने शहर के बाहर चार तालाब, उन तालाबों पर भव्य मंदिर व बाहरी व्यक्ति को शहर में बिना अनुमति अंदर आने से रोकने के लिए विशाल दरवाजों का निर्माण करवाया गया।

रघुवीर सिंह संगरूर नगरी को आबाद करने के बाद शासन करने लगे, लेकिन वह मानसिक रूप से परेशान रहते थे। पुरातन कथा के अनुसार, उन्होंने अपने संकल्प के मुताबिक गुरुद्वारे व मंदिर बनवाए और लंगर का भी प्रबंध किया, परन्तु वह श्री महाकाली देवी का मंदिर न बनवा सके। उस समय पटियाला में महाकाली जी की मूर्ति की स्थापना महाराजा पटियाला द्वारा की गई थी। महाराजा रघुवीर सिंह देवी से प्रार्थना करते थे कि हे माता, ऐसी कौन सी बात है, जिसके कारण सब कुछ होते हुए भी वह परेशान रहते हैं। एक रात्रि स्वप्न में उन्हें महाकाली जी ने दर्शन दिए और उनकी परेशानी का कारण बताते हुए मूर्ति की स्थापना करने का आदेश दिया।

इस पर महाराज सन 1871 में खुद कोलकाता गए और बड़ी श्रद्धा के साथ कीमती पत्थर की बनी महाकाली की मूर्ति ले आए। पंडितों की आज्ञा के अनुसार मूर्ति को नगर के बाहर स्थापित किया गया और श्री महाकाली का मुखारविंद बाहर की ओर किया गया, ताकि प्रजा की प्राकृतिक विपत्तियों व शत्रुओं से रक्षा की जा सके। लेकिन इस डर से कोई पंडित इस मंदिर का पुजारी बनने के लिए आगे नहीं आया, क्योंकि मां नर बलि लेती है। इस अंधविश्वास की परवाह न करते हुए महाराज के निकट मित्र तांत्रिक महापंडित आचार्य श्री भैरों दत्त ने इस मंदिर का पुजारी बनना स्वीकार किया, लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ दिन पश्चात भैरों दत्त स्वर्ग सिधार गए। इस घटना के महाराज बहुत दुखी हुए और उन्होंने उनके परिजनों को ढांढस देने के लिए उस कुल की तीन पुश्तों को मंदिर का चढ़ावा देने की घोषणा की। श्री महाकाली की प्रेरणा से आज इस मंदिर की समिति एक दल के रूप में पूरी श्रद्धा व लगन से मंदिर के पुनर्निर्माण में लगी हुई है।

हर शनिवार को महाकाली देवी मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है तथा नवरात्रों को दिनों में मंदिर में दूर-दराज से श्रद्धालु माथा टेकने पहुंचते हैं। नवरात्रों के नौ दिन मंदिर में विशेष पुजा की जाती है तथा सुबह-शाम श्रद्धालु माथा टेकने के लिए पहुंचते है। नवरात्र के पहले दो दिन व अंतिम दो-तीन दिन पुजा का खास महत्व है।

[सचिन धनजस]

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