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फसलां दी मुक गई राखी, जट्टा आई बैसाखी..

आमतौर पर सभी त्योहारों का संबंध ऋतु और धर्म से होता है, लेकिन बैसाखी एक ऐसा पर्व है, जिसका संबंध धर्म और ऋतु के साथ-साथ इतिहास से भी है। यह इतिहास कुर्बानियों और पराधीनता के विरुद्ध लड़ाई का रहा है, चाहे वह मुगलों के अत्याचार के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध हो अथवा अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने के लिए लड़ी गई लड़ाई।

By Edited By: Published: Fri, 13 Apr 2012 01:41 PM (IST)Updated: Fri, 13 Apr 2012 01:41 PM (IST)
फसलां दी मुक गई राखी, जट्टा आई बैसाखी..

बैसाखी नई फसल के स्वागत के लिए मनाया जाने वाला त्योहार है। बैसाखी की पूर्व संध्या पर पक चुके गेहूं के खेत में सिख समुदाय ने भांगडा कर खुशी का इजहार किया।

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आमतौर पर सभी त्योहारों का संबंध ऋतु और धर्म से होता है, लेकिन बैसाखी एक ऐसा पर्व है, जिसका संबंध धर्म और ऋतु के साथ-साथ इतिहास से भी है। यह इतिहास कुर्बानियों और पराधीनता के विरुद्ध लड़ाई का रहा है, चाहे वह मुगलों के अत्याचार के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध हो अथवा अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करने के लिए लड़ी गई लड़ाई। लड़ाई चूंकि ईमानदारी और मानवीय अधिकार की थी अत: विजय भी मिलनी ही थी, इस लिहाज से देखा जाए तो इस पर्व का उल्लास अन्य त्योहारों से अधिक होता है। धरती पर बिछी सोने की चादर से उठने वाली किसान के पसीने की सुगंध मन को एक विशेष प्रकार का सुकून देती है और उस आनंद से अभिभूत लोग यह कहते हुए थिरक उठते हैं कि फसलां दी मुक गई राखी, जट्टा आई बैसाखी। यह जरूर है कि समय के साथ-साथ इस पर्व को मनाने के तौर तरीकों में बदलाव आया है और आधुनिकता की छाया से यह त्योहार भी अछूता नहीं रहा, किन्तु पर्व तो किसी भी रूप में उत्सव के उद्देश्य से ही मनाए जाते हैं।

अब न लगते हैं मेले और न दिखती है रंगत

फसलां दी मुक गई राखी जट्टा आई बैसाखी। उपरोक्त पंक्ति एक त्योहार के आने का अहसास ही नहीं कराती, बल्कि मस्ती से भरे जीवन को भी दर्शाती है। चिंता का विषय है कि समय के साथ इसमें काफी बदलाव आ गए। बैसाखी को लेकर न अब हर जगह मेले लगते हैं और न ही वो मस्ती व रंगत दिखती है। जिले के लोगों ने पुरानी यादें ताजा करते हुए आज की सच्चाई पर अपने विचार रखे। सेवानिवृत प्रोफेसर अहिंसा पाठक कहती हैं कि अब बैसाखी को लेकर लोगों में पहले जैसी मस्ती नहीं दिखती। नई पीढ़ी को इसके बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान नहीं है। इसके लिए हम बड़े बुजुर्ग लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं। अब तो लोग भंगड़ा डालते हैं और कुछ गीत-संगीत के साथ इसे मना लेते हैं। वहीं नौबत राय बताते हैं कि बैसाखी पर हम लोग सुबह की गाड़ी से राहों जाते थे। वहां सतलुज दरिया में स्नान-ध्यान करते थे। साथ में खाना लेकर जाते थे। वहीं पर गीत भंगड़ा आदि की धमाल मचाते और फिर राहों में सूरजकुंड में आते। यहां पर भव्य मेला लगता था। उस जमाने में जो आस्था और श्रद्धा दिखती थी, अब उसकी जगह भव्यता ने ले लिया है। वह बताते हैं कि जट्ट हाथों में दातर लेकर खेतों में जाते थे और वहां पर खड़ी कनक की फसल की कटाई का शुभारंभ करते थे। फिर सब खुशहाली के रंग में सराबोर हो जाते थे। गुरचरन सिंह रिहल कहते हैं कि पहले बैसाखी का त्योहार धूमधाम के साथ मनाया जाता था। जगह-जगह गन्ने के रस का लंगर लगता था। लोग आसपास की नदियों में जाते और स्नान ध्यान करते थे। अब तो न वो मेला लगता है और न ही वह रंगत नजर आती है। अब तो लोग परंपराओं का निर्वाहन भर ही कर रहे हैं। हरजीत सिंह ने कहा कि पहले जब बैसाखी आती थी तब लोग कनक की कटाई करना शुरू कर देते थे। दो-दो महीने तक कनक कटती थी। जरनैल सिंह ने कहा कि अब तो यह मात्र एक त्योहार ही बनकर रह गया है। आजकल किसी के पास समय नहीं है नहीं तो पहले लोग सबका बड़ी बेसब्री के साथ इंतजार करते थे। राम लाल का कहना है कि पहले बैसाखी में प्रेम भाव के दीदार होते थे। अब वैसा नहीं रह गया है। पहले धार्मिकता का भाव के साथ लोग इसमें शिरकत करते थे, लेकिन अब तो बस भव्यता का दिखावा करने से नहीं चूकते हैं। एक ओंकार सतनाम पाकिस्तान गए सिख तीर्थयात्रियों ने वीरवार को हसन अब्दाल में गुरुद्वारा पंजा साहिब के दर्शन किए। वैशाखी के मौके पर यहां हर साल हजारों सिख तीर्थयात्री आते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां एक चट्टान पर श्री गुरुनानक देवजी के हाथ की छाप अंकित है।

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