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दर्पण

<p>दर्पण उसे हमेशा उसकी हकीकत का अहसास दिलाता रहता फिर भी पता नहीं क्यूं उसका अधिकांश समय दर्पण के सामने ही निकलता था। मां हमेशा उस बात के लिए ताने देती रहती। पर वो कभी भी समझ नहीं पाई। मां भी सब जानती थी। पर वो तरस खाने के अलावा कर ही क्या सकती थी। जब भी वो कोंपल को ऐसा करता देखती, उसकी आंखों में आंसू आ जाते। वो क्या करे, यह उम्र ही ऐसी है। इसकी दहलीज पर जो भी खडा होता </p>

By Edited By: Published: Sun, 18 Mar 2012 03:57 PM (IST)Updated: Sun, 18 Mar 2012 03:57 PM (IST)
दर्पण

दर्पण उसे कभी भी अच्छा नहीं लगा कारण यही रहा कि उसके नाक-नक्श सुंदर नहीं थे। काला रंग, माथा चौडा, मोटे होंठ, नाक फैली हुई, छोटी-छोटी आंखें और दुबला-पतला शरीर। बीस वर्ष उम्र कुछ अधिक नहीं थी परन्तु युवावस्था के प्रारंभिक वर्ष उसने तनाव व कुंठाओं के साए में निकाले थे जिससे उम्र भी अधिक लगने लगी थी।

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दर्पण उसे हमेशा उसकी हकीकत का अहसास दिलाता रहता फिर भी पता नहीं क्यूं उसका अधिकांश समय दर्पण के सामने ही निकलता था। मां हमेशा उस बात के लिए ताने देती रहती। पर वो कभी भी समझ नहीं पाई। मां भी सब जानती थी। पर वो तरस खाने के अलावा कर ही क्या सकती थी। जब भी वो कोंपल को ऐसा करता देखती, उसकी आंखों में आंसू आ जाते। वो क्या करे, यह उम्र ही ऐसी है। इसकी दहलीज पर जो भी खडा होता है, सपने खुद-बखुद चलकर इर्द-गिर्द जमा हो जाते हैं। प्रत्येक सपना सुंदरता के आस-पास मंडराता रहता है। खूबसूरती की चाहत, अन्य सभी इच्छाओं को पीछे छोड देती है।

कोंपल जानती थी कि अब वह बच्ची नहीं रही। बीस वर्ष की हो चली थी। गाहे-बगाहे उसकी शादी की बातचीत हो ही जाती थी। पढाई को लेकर वो विचारों तक बहुत गंभीर थी, वो जानती थी आज का युग अर्थप्रधान है, सम्पूर्ण जीवन अर्थ के इर्द-गिर्द घूम रहा है, पैसे के बिना कुछ भी नहीं है। एक बडे कैरियर की सोचकर वो पढाई को व्यवस्थित करने की कोशिश करती। पर कुछ चीजें उसे अंदर तक तोड जातीं।

उसकी कुरूपता उस समय और मुखर हो उठती जब वो अपनी किसी सहेली के साथ निकलती। लोगों की निगाहें उसकी सहेली के चेहरे को पढकर पार निकल जातीं। वो बहुत चाहती थी कि कोई निगाह उस पर ठहरे और बस उसी तक सिमटकर रह जाए। उसे अपने आपको अदृश्य व्यक्तित्व मान लेना भीतर तक तोड जाता था।

बस इसीलिए तो वह बार-बार दर्पण के इर्द-गिर्द मंडराती रहती। उसके पास एक छोटा सा दर्पण था, नक्काशीदार। तरह-तरह के स्वांग रचती। कभी खुले बाल रखकर, कभी चोटी बनाकर। कभी चेहरे को बारीकी से देखती। होंठों को सिकोडकर इस तरह बना लेती कि मुंह बंद करने पर उनका स्वरूप पतला लगे। आंखों के नीचे दिखने वाली झांइयों पर न जाने कौन-कौन सी क्रीमें लगाती रहती। काला रंग, इतना काला था कि धूप भी उस पर क्या असर दिखा पाती, मगर खुले में वह अपने चेहरे को कपडे से छुपाकर रखती। घर में घुसते ही चेहरे को खूब देर तक धोती रहती। आंखें, जैसी थीं, वैसी ही रहती पर उसमें गुलाबजल व शहद बराबर डालती रहती। लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी जब कोई रिश्तेदार उसके मुंह पर ही मां से कह जाता कि श्यामा तूने अपनी छोरी को बिल्कुल डोकरी बना रखा है। तो बस वो फट ही पडती।

एक दिन तो गजब ही हो गया। जान से प्यारे दर्पण के उसने तीन टुकडे कर दिए। बात यूं हुई, कि मां ने किताबों के लिए दो सौ रुपए दिए और वो बाजार से चेहरे की क्रीम ले आई। लीप-पोतकर बस कमरे में बैठी ही थी कि मां ने किताब की पूछ ली। जब असल बात सामने आई तो मां का हाथ ही उठ गया। यह अप्रत्याशित था, पहले बात कहने-सुनने तक सीमित थी, यह नौबत पहली बार आई थी। वो स्तब्ध रह गई। मां को भी अच्छा नहीं लगा। पर नतीजा यह हुआ कि कोंपल ने दर्पण को पटक दिया, जिससे उसके टुकडे हो गए। मां ने उसे एक थैली में रखा और वहीं कोने में डाल दिया।

उस दिन से कोंपल का दर्पण से साथ छूट गया। मां के हाथ से पडे थप्पड ने सपनों को जीवन से दूर कर दिया। उसने अपने मेकअप का सभी सामान उठाकर एक बैग में डाला और बुखारी पर रख दिया। उसे अहसास हुआ कि उसकी सोच वाकई गलत है, वो खूबसूरत नहीं है, उसे सुंदर दिखने व सोचने का कोई अधिकार नहीं है।

बस उसका जीवन बदल गया। कहां तो सुबह से शाम, वो दर्पण के बिना नहीं रह पाती थी। अब केवल नहाने के बाद वाशबेसिन के सामने दो मिनट आकर बाल बनाती और दिन भर उन्हें नहीं देखती। अब उसे अपनी सहेलियों की सुंदरता से ईष्र्या भी नहीं होती थी। उसे लगता था कि यह तो उसका भाग्य ही है, क्या कोई कर सकता है! मां को उसका हाल देख ग्लानि भी हुई, उसने उसे प्यार से कहा भी, मगर कोंपल तो जैसे निर्लिप्त हो गई थी।

दिन बीतने लगे और करीब एक माह गुजर गया। एक दिन अचानक परीक्षा फार्म पर फोटो लगाने की जरूरत पडी। उसने घर में देखा, कोई फोटो नहीं था। पास ही में, फोटो की एक दुकान थोडे दिन पहले ही खुली थी। वह पहुंची तो दुकान पर उसके अलावा कोई ग्राहक भी नहीं था। आहट सुन डार्करूम से एक युवक बाहर निकला। उसने तत्परता से कोंपल को कुर्सी पर बिठाया और कैमरा सेट करने लगा। युवक हमउम्र ही था और शक्ल-सूरत से स्मार्ट लग रहा था।

- मैडम, जरा बाल खोल लीजिए। कैमरे में झांकते हुए उसने कहा।

- अरे आप तो ऐसे ही खींच दीजिए, बाल खोलने से भला क्या फर्क पडेगा। चेहरा तो जैसा है वैसा ही आएगा। उसमें आप क्या कर लोगे। वह न जाने किस रौ में बहकर ऐसा कह गई। युवक भी हतप्रभ रह गया। इस उम्र की लडकी में सौंदर्य के प्रति उपेक्षा भाव उसने नहीं देखा था।

नहीं मैडम, फर्क कैसे नहीं पडेगा। आपका चेहरा गोल है, बाल कंधे तक रखेंगी तो अच्छा फोटो आएगा। पर कोंपल मानसिक उद्वेग के भंवर में फंसी हुई थी। वो बोली, अब भगवान ने जैसा बनाया, ठीक है। अच्छा-बुरा जैसा भी है, ठीक है।

युवक हंसा, नहीं मैडम, किसने कह दिया, आपका चेहरा तो फोटोजेनिक है, आपकी आंखें अच्छी हैं। गर्दन तक खुले बाल रखेंगी, तो अच्छा गेटअप आएगा, हाईट भी अच्छी है, पतली-दुबली हैं, अच्छी तो लगती हैं।

कोंपल को लगा.. समय यहीं रुक जाए.. जीवन में पहली बार किसी के .. वह भी एक हमउम्र युवक के मुंह से.. उसका हृदय जोर-जोर से धडकने लगा। लगा पांव उठ नहीं पा रहे हैं। जैसे-तैसे फोटो खिंचवाया और बाहर निकल आई।

घर तक कैसे पहुंची, उसे कुछ पता नहीं। घर पहुंचकर उसने किसी से बात नहीं की। सीधे अपने कमरे में चली गई। मां को अटपटा तो लगा, पर वो चुप रही। धीरे-धीरे रात हुई। कोंपल कमरे में से नहीं निकली। उसने मां से खाने के लिए मना कर दिया। मां, उसकी मन:स्थिति भी जानती थी, इसलिए उसने ज्यादा जिद भी नहीं की।

जीवन का वह पल कोंपल को बहुत ही सुखद, स्वप्निल और अद्भुत लग रहा था। रह-रहकर उसके जेहन में फोटोग्राफर के शब्द गूंज रहे थे। एक पल के लिए उसके दिमाग में ख्याल आया कि युवक ने दुकानदारी की वजह से तो ऐसा नहीं कहा था, परन्तु मधुर कल्पनाएं उस पर पूर्णत: हावी हो चुकी थी। मन कुछ भी मानने को तैयार नहीं था। एक माह का उदासी भरा वनवास मानो खत्म होने को तत्पर था।

थोडी देर बाद सब सो गए। कोंपल की आंखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी। वो चुपके से उठी। लाईट जलाई। मां सो रही थी। लाईट जलाते ही उसकी निगाह खुद-बखुद जाकर कोने में रखी थैली पर चली गई। जिसमें उसका टूटा हुआ दर्पण रखा था। उसने थैली से दर्पण को निकाला। दर्पण के तीन टुकडे हो गए थे। उसने आहिस्ता-आहिस्ता टुकडों को जमाया और पलंग पर रख दिया।

उसने आस-पास देखा, मां पहले की तरह सो रही थी। उसका हृदय जोरों से धडक रहा था। कांपते हुए हाथों से उसने दर्पण को उठाया और अपने चेहरे को निहारा। उसकी आंखें भर आर्इं। वो युवक सच कह रहा था, वो तो बहुत सुंदर है, कितनी सुंदर है, कितनी सुंदर आंखें हैं और बाल.. बाल खुले हुए बाल तो बस..।

तभी मां ने करवट बदली। इस पर इस बार आहट पर कोंपल ने पलटकर नहीं देखा। उसकी आंखें तो बस दर्पण पर चिपक गई थी। वो बस उसे ही देखे जा रही थी।

शरद उपाध्याय

175, आदित्य आवास, गोपाल विहार, कोटा- 324001 (राज.)


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