दावानल है आत्मप्रशंसा
अर्जुन ने जब प्रायश्चित करने के लिए आत्मदाह का फैसला किया, तो श्रीकृष्ण ने उन्हें आत्मप्रशंसा का विकल्प बताकर उनके प्राण बचाए। आज श्रीकृष्ण जैसी व्यावहारिक सोच की जरूरत है।
भगवान श्रीकृष्ण बड़े व्यावहारिक व्यक्ति थे। उनकी सोच ही उनका दर्शन है। इस दर्शन में परिस्थितियों को जस का तस देखने और उसी के अनुरूप निर्णय लेने के मूल-तत्व की प्रधानता है। ऐसा नहीं है कि इसमें भावनाओं की उपेक्षा है, मगर यहां भावनाएं विवेक पर हावी नहीं हो पातीं। इसीलिए मथुरा त्यागकर सुदूर द्वारका में राजधानी बनाने का निर्णय हो या न्याय के युद्ध में पांडवों के पक्ष में खड़े होने का फैसला, श्रीकृष्ण कहीं भी ऊहापोह की स्थिति में नजर नहीं आते।
वह सर्वथा परिस्थितियों के अनुसार अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते थे। यही कारण था कि लोगों को उनके निर्णय के साथ मतैक्य बैठाने में कभी असुविधा नहीं हुई। आज जब समूचा विश्व सर्वमान्य नीतियों के अभाव के त्रासद संकट से जूझ रहा है, श्री कृष्ण का दर्शन और भी प्रासंगिक हो जाता है।
वे भगवान थे या नहीं, इसको लेकर मतभिन्नता हो सकती है, परंतु इस बात को लेकर सभी एकमत हो सकते हैं कि उनके जीवन-दर्शन और उनकी स्पष्ट सोच वाली नीतियों-निर्णयों ने ही उन्हें ईश्वरीय आभा-चक्र से आवेष्ठित किया। सोच के स्तर पर वे कितने स्पष्ट थे और सदा कितने प्रासंगिक हैं, इसका प्रमाण गीता के वे उपदेश हैं, जिन्होंने मोहपाश में जकड़े हताशा के सागर में डूब-उतरा रहे अर्जुन को न सिर्फ अवसाद से उबारा, बल्कि जीवन को लेकर एक नई दृष्टि से उनका साक्षात्कार भी कराया। यह सोच सर्वदा उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनी रही। व्यास, विदुर और गंगापुत्र भीष्म जैसे मनीषियों ने भी इसी विराट व्यक्तित्व में ईश्वरीय छवि का दर्शन किया। आज विश्व में नीतियों का संकट है। इससे मुक्ति के लिए श्रीकृष्ण जैसी सोच की जरूरत है, जो सटीक, तात्कालिक व व्यावहारिक भी हो।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। दुर्योधन हमेशा गुरु द्रोणाचार्य से कहते थे कि आप कोई चमत्कार नहीं दिखाते, जिससे युद्ध में हमारे अनुकूल उपलब्धि हो। द्रोण ने कहा कि कृष्ण और अर्जुन को युद्ध से अलग करो, तो मैं कुछ कर सकता हूं। परिणामत: संसप्तकों का एक युद्ध हुआ। इस युद्ध में नियम था कि यदि कोई ललकारे तो युद्ध करना ही पड़ेगा।
युद्ध क्षेत्र से दूर जाकर दुर्योधन ने ललकार लगाई। उस ललकार का उत्तर देने के लिए पांडवों की ओर से सिर्फ महाराज युधिष्ठिर और अभिमन्यु ही आ सके। कौरवों के दल ने इसी समय चक्रव्यूह की रचना की। ऐसे समय यह सब किया गया, जब पांडवों को उसका आभास भी नहीं था। वे अपने-अपने मोचरें पर जूझते रहे। अंतत: अभिमन्यु को इस षड्यंत्र का सामना करना पड़ा और इस युद्ध में अभिमन्यु मारा गया।
वस्तुत: पांडवों को भान भी नहीं था कि ऐसा कुछ होने वाला है, जिससे गहरी क्षति हो सकती है। केवल धर्मराज और अभिमन्यु रह गए थे, जिन्हें चक्रव्यूह का भेदन करना था।
अभिमन्यु ने चक्रव्यूह का सामना किया। उसने उसके कई भागों पर विजय पाई, लेकिन अंत में मारा गया। जब अन्य पांडव लौटे और उन्हें अभिमन्यु के मरने का पता चला, तो अर्जुन को धर्मराज पर क्रोध आया। उन्होंने उन्हें बुरा-भला कहा।
जब क्रोध शांत हुआ, तब पश्चाताप का दौर आया। अर्जुन ने कहा, अरे, मैंने उस व्यक्ति को ऐसा कहा, जिन्हें धर्मराज कहा जाता है। इसके प्रायश्चित के लिए मुझे आत्मदाह कर लेना चाहिए। कृष्ण भी बोले, जरूर करना चाहिए। दूर चिता सजाई जाने लगी। सब एक-दूसरे की ओर देख रहे थे कि क्या हो रहा है, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था। अंत में मुस्कराते हुए कृष्ण ने कहा, आत्मदाह का एक विकल्प भी है कि तुम अपनी प्रशंसा खुद करो। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है- आत्मप्रशंसा अनल सम, करतब कानन दाह यानी आत्मप्रशंसा वह आग है, जिसमें कर्तव्य का जंगल जल जाता है। श्रीकृष्ण की बात सुनकर अर्जुन को भान और ज्ञान हुआ। उन्होंने आत्मदाह का निर्णय त्याग दिया। इस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को आत्महत्या से बचा लिया।
यह श्रीकृष्ण का व्यावहारिक दर्शन था। जीवन को यथार्थ में देखने की उनकी दृष्टि थी। यही जीवन की प्रासंगिकता है। इसीलिए श्रीकृष्ण को इतना मान मिला।
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