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अंतस के संत कबीर

कबीर ने पाखंड और कर्मकांड के विरुद्ध जाकर अंतस की ऊंचाइयां प्राप्त करने का मार्ग सुझाया था। कबीर जयंती (4 जून) पर विशेष..

By Edited By: Published: Wed, 30 May 2012 03:13 PM (IST)Updated: Wed, 30 May 2012 03:13 PM (IST)
अंतस के संत कबीर

कबीर की भक्ति का मार्ग अनूठा है। यहां जितनी सहजता है, उतनी सघनता। कबीर भक्ति के साथ नैतिकता भी सिखाते हैं और समाज की बेहतरी के लिए उच्चतम जीवन-मूल्यों की हिमायत करते हैं। जीवन की व्याख्या समग्रता में करते हैं और अध्यात्म का दर्शन-मंथन पूरी पारदर्शिता के साथ। यहां बाच् जीवन-जगत के दृष्टिगत तथ्य ही नहीं, अंतर्जगत के दुर्लभ अनुभूति-कथ्य तक, सब में पारदर्शिता है। वे जो बात कहते हैं, वह लोगों पर सीधे असर करती है। वे विभिन्न धर्र्मो में उपजे पाखंड के विरुद्ध खड़े होते हैं और समाधान भी सुझाते हैं - पाहन पूजें हरि मिलें, तो मैं पूजूं पहाड़, ताते यह चाकी भली पीस खाए संसार। वे आचार-विचार के जरिये अंतस की ऊर्जा ग्रहण करने की बात कहते हैं।

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संत कबीर बाहर जाकर नहीं, अंतस की गहराइयों में ईश्वर को खोजने की बात कहते हैं- कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं.. ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।। इतना ही नहीं, बिना किसी लाग-लपेट के वे जीवात्मा-परमात्मा के गहन तत्व-ज्ञान को भी दृष्टांत के जरिये सरलता से समझा देते हैं- जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी.. फूटा कुंभ जल जलहि समाना, इहिं तथ कथ्यौ ज्ञानी।।

कबीर के दर्शन में मोक्ष की तलाश सीमित नहीं, बल्कि उनका प्रयास व्यापक है। कबीर अकेले परम पद पा लेने का लक्ष्य नहीं साधते, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति का प्रयास करते हैं। इसलिए कबीर के भक्ति-मार्ग को अध्यात्म का समष्टिकरण कह सकते हैं। यानी वह अध्यात्म, जो सबके लिए है। जो दूसरा लोक सुधारने के मुकाबले मौजूदा संसार को समझने और उसे संवारने का संदेश देता है।

कबीर योग, भक्ति और साधना को किन्हीं जटिल क्रियाओं में नहीं बांधते। वे भक्ति को प्रेम का ही घनीभूत रूप मानते हैं। उनका मानना है कि नैतिकता और उच्चतम मानव-मूल्यों के साथ ही भक्ति हो सकती है, तभी प्रेम हो सकता है। उनके दर्शन में सबके लिए कल्याण की कामना है। भक्ति के लिए कबीर आडंबरों का विरोध करते हैं, उसके लिए न जप-तप की जरूरत है, न कोई ग्रंथ पढ़ने की। कबीर पोथी नहीं, प्रेम का ढाई आखर पढ़ने वाले पंडित (विद्वान) हैं।

कबीर के भक्ति विषयक पदों में भी उनका वही सामाजिक समन्वय दृष्टिकोण अपने प्रखर रूप में विद्यमान है, जो उनके लौकिक प्रसंग वाले दोहों में निहित है। यहां न ज्ञानी होने के कारण कोई विशिष्ट है न अज्ञानी होने के चलते तनिक भी हीन। न कोई ऊंचा है न नीचा। उनका मानना है हरि के आगे सब बराबर हो जाते हैं -जाति पांति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।

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