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शौर्य का त्योहार

पंजाब की संस्कृति निराली है। आनंदपुर साहिब में होली के अगले दिन होला महल्ला मनाया जाता है, जिसमें सिख अपनी वीरता का प्रदर्शन करके मानवता की रक्षा का व्रत लेते हैं..

By Edited By: Published: Fri, 29 Mar 2013 01:11 PM (IST)Updated: Fri, 29 Mar 2013 01:11 PM (IST)
शौर्य का त्योहार

पंजाब में भी फाल्गुन मास की पूर्णिमा को बड़े उल्लास के साथ रंगों से भरी होली मनाई जाती है। आनंदपुर साहिब में इसके अगले दिन होला मोहल्ला मनाया जाता है, जिसे सिखों की वीरता का प्रतीक माना जाता है। दसवें गुरु श्री गुरुगोविंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में होला महल्ला मनाने की परंपरा शुरू की थी। इस मौके पर पूर्णिमा के अगले दिन वीरतापूर्ण करतबों का प्रदर्शन किया जाता है।

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होला महल्ला में होला शब्द होली का खालसई में बोला जाने वाला रूप है, जबकि महल्ला अरबी के शब्द मय हल्ला यानी आक्रमण का क्षेत्रीय तद्भव रूप है। अर्थात होला-महल्ला का अर्थ हुआ-होली के अवसर पर आक्रमण आदि युद्ध-कौशल का अभ्यास।

सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी सिखों के सैन्य प्रशिक्षण के हिमायती थे। उनकी एक उक्ति बहुत प्रसिद्ध है- चिडि़यन ते मैं बाज तुड़ाऊं.. सवा लाख से एक लड़ाऊं. तबै गोबिंद सिंह नाम कहाऊं..। इसका अर्थ है कि मैं चिडि़यों को इतना शक्तिशाली बना दूंगा कि वे बाज को भी मार सकें.. अर्थात एक-एक को इतना बहादुर बना दूंगा कि वे सवा-सवा लाख से टक्कर ले सकें.. तभी मैं अपना नाम गोविंद सिंह कहलाऊंगा। गुरुजी ने दलित-शोषित मानवता को प्रबल सैन्य-शक्ति में परिवर्तित करना शुरू कर दिया था। वैसे तो सिख छठें पातशाह श्री गुरु हरिगोविंद साहिब के समय में ही शस्त्रधारी बन गए थे, परंतु दशमेश पिता के समय में सिखों के सैन्यीकरण में तेजी आ गई थी। गुरु गोविंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब को सिखों के राजनीतिक एवं सैन्य केंद्र के रूप में विकसित किया और आनंदगढ़, केसगढ़ और होलगढ़ आदि पांच किलों का निर्माण भी कराया। खालसा पंथ की नींव रखने के साथ ही सिखों के सैन्यीकरण का पहला दौर समाप्त हो गया था।

गुरु गोविंद सिंह जी ने पहला होला-महल्ला चैत्र प्रतिपदा संवत् 1757 यानी सन् 1700 ई. को किला होलगढ़ में मनाया था। यहां संपूर्ण सिख सेना के दो हिस्से करके उनके मध्य बनावटी युद्ध करवाया गया। फिर यह परंपरा ही शुरू हो गई। विजेता दल को पुरस्कार-स्वरूप सिरोपा बख्शीश किया जाता। दीवान में गुरबाणी का पाठ होता और कड़ाह-प्रसाद और गुरु का लंगर वितरित किया जाता। इस प्रकार गुरु गोबिंद सिंह जी ने होला महल्ला पर्व के माध्यम से सिखों में वीरोचित उल्लास और मानवता की रक्षा की प्रेरणा भरने का पुख्ता प्रबंध कर दिया।

तब से आनंदपुर साहिब में होला-महल्ला पर्व मनाया जाता है। यहां खालसे की भारी भीड़ इकट्ठा होती है। दूर-दूर से श्रद्धालु होला महल्ला के नगर-कीर्तन में भाग लेने आते हैं, जिसे महल्ला चढ़ना कहते हैं। पंच प्यारे अरदासा सोध के आनंदपुर किले से निशान साहिब लेकर चढ़ते हैं। साथ निहंग सिंह शस्त्र-धारण कर घोड़ों पर सवार होते हैं। नगाड़े की चोट पर बोले सो निहाल एवं सत श्री अकाल के जयकारे गूंजने लगते हैं। आनंदगढ़ से चला यह नगर-कीर्तन माता जीतो जी के देहरे, किला होलगढ़ से होता हुआ चरणगंगा पार कर मैदान में पहुंचता है, जहां सिख सेनाएं अपने करतब दिखाती हैं। यह नगर-कीर्तन तख्त श्री केसगढ़ साहिब की ओर चलता है। वहां पहुंचकर दीवान सजाए जाते हैं, गुरबाणी कीर्तन होता है और अरदास होती है।

इस प्रकार आनंदपुर साहिब का होला महल्ला सिखों को शस्त्र-संचालन में प्रवीणता के लिए प्रेरित करता है और याद दिलाता है कि इनसे मानवता, देश एवं धर्म की रक्षा करनी है।

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