आस्था के घड़े से छलका प्रेम का अमृत
पौैराणिक गाथाओं में राधा-कृष्ण, दुष्यंत-शकुंतला की प्रेम गाथाएं हैं तो और उर्वशी-पुरुरवा की अलौकिक कथा भी। राधा-कृष्ण के हजारों मंदिर हैं, लाखों-करोड़ों आराधक भी. पर उर्वशी-पुरुरवा अभी तक आराध्य नहीं रहे।
कुंभनगर। पौैराणिक गाथाओं में राधा-कृष्ण, दुष्यंत-शकुंतला की प्रेम गाथाएं हैं तो और उर्वशी-पुरुरवा की अलौकिक कथा भी। राधा-कृष्ण के हजारों मंदिर हैं, लाखों-करोड़ों आराधक भी. पर उर्वशी-पुरुरवा अभी तक आराध्य नहीं रहे। लेकिन इस महाकुंभ में आस्था के घड़े से प्रेम का अमृत भी छलका है। गंगा के पूरबी छोर के समुद्र कूप टीले पर रामानंदी वैष्णव संप्रदाय के बाबा बालकृष्णदास ने यहां स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी और राजा पुरुरवा के मूर्तियों की स्थापना कर मंदिर का निर्माण करा दिया है। विश्व में अभी तक उर्वशी-पुरुरवा का मंदिर कहीं नहीं है। यूं कहें कि धर्मनगरी में यह नया सिलसिला है।
झूंसी के प्रसिद्ध उल्टा किला की कोख में पौराणिकता तो उसकी देह पर ऐतिहासिकता का प्लास्टर है। पुराणों के पन्ने पलट कर देखें तो पता चलता है कि क्षत्रियों के दो वंश हुए। सूर्य और चंद्रवंश। चंद्रमा के पुत्र बुद्ध से ही पुरुरवा का जन्म हुआ था। जनुश्रुतियों के अनुसार तब पुरुरवा की राजधानी यही प्रतिष्ठान नगर (आज का उल्टा किला) थी। कहते हैं कि किसी समय देवलोक में एक घटना घटी। समुद्र मंथन से निकली अप्सरा नृत्य कर रही थी और इसी बीच दुर्वाशा ऋषि वहां पहुंच गए।
सारे देवताओं ने दुर्वाशा का अभिवादन किया किंतु नृत्य में मगन उर्वशी को इसका भान नहीं रहा। कुपित हुए दुर्वाशा ने उर्वशी को 100 वर्ष तक धरती पर रहने का श्राप दे दिया। चूंकि पुरुरवा पूजा-पाठ और याज्ञिक क्त्रियाओं में विश्वास रखते थे, लिहाजा उर्वशी उन्हीं के पास आयी और पत्नी बनकर सौ साल तक रही। दोनों की अटूट प्रेम-कहानियां जगजाहिर हैं लेकिन अभी तक इनका मंदिर पूरी दुनिया में कहीं नहीं बना। इस महाकुंभ में समुद्र कूप आश्रम के महंत बाबा बालकृष्णदास ने यही बीड़ा उठाया। 31 जनवरी को उन्होंने बाकयदा यज्ञ-हवन कर उर्वशी-पुरुरवा मंदिर में दोनों की प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा करायी। इस बारे में बाबा बालकृष्णदास के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि सनातन धर्म के फैसले श्रुति और स्मृति के आधार पर लिए जाते रहे हैं।
पौराणिक आख्यानों का हवाला देकर बाबा बताते हैं कि चंद्रवंश के राजा पुरुरवा की ही 42 वीं पीढ़ी में योगिराज कृष्ण का जन्म हुआ। इस लिहाज से उर्वशी चंद्रवंश के पूर्वजों में हुई। उसने सौ साल तक जीवन पुरुरवा के साथ अर्धागिनी के रूप में बिताया। ऐसे में वह आराध्य है। और आराध्य है तो उसकी पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए। बाबा कहना है कि यह भी प्रेम का विषय है। इसलिए इसमें ज्यादा ज्ञान बघारने की जरूरत नहीं है। उनका कहना है कि वह उर्वशी-पुरुरवा के और भी मंदिर बनाने का जतन करेंगे, ताकि भक्त जन इनकी भी उपासना करें। यहां तक आते-आते बाबा बालकृष्ण, सूर के भ्रमरगीत की कुछ पंक्तियां भी बांच देते हैं-
प्रेम-प्रेम ते होइं प्रेम ते पारहि जइहैं,
प्रेम बंध्यो संसार प्रेम परमारथ पइहैं।
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