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ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता कहा जाता

वृत्तियां अपने आप में बुरी नहीं होती हैं। सवाल है उनके जुड़ने का। देव से जुड़कर सद्गुण बन जाती हैं और दानव से जुड़कर दुर्गुन। यह वैसे ही हो जाता है जैसे निर्मल जल नाली में गिरने से गंदा हो जाता है। ब्रह्मा काम के देवता हैं। काम की कोख से सृजन का जन्म होता है। इसीलिए ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता कहा जाता है। भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि मैं इच्छाओं में काम हूं। यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, किंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचारी का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है, वहां रावण का काम सर्वनाश का कारण। विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और र्दुव्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसका निवेश लोकसंग्रह के क्षेत्र में करते रहना चाहिए। धनसंग्रह बुरी बात नहीं है, यदि वह समाज हित में नियोजित हो। हम धन के मालिक न होकर उसके ट्रस्टी हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ चला गया, तब संतों का उत्पीड़क बन गया। शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार दोनों सृष्टि के विधान के हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। वस्तुत: काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं, तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगते हैं। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ के असंतुलन से ही विभिन्न रोग पैदा होते हैं। काम वात की तरह, लोभ कफ की तरह और क्रोध पित्त की तरह है। इसलिए काम, लोभ और क्रोध को सदैव नियंत्रण में रखने का प्रयास करना चाहिए।

By Edited By: Published: Fri, 17 May 2013 12:11 PM (IST)Updated: Fri, 17 May 2013 12:11 PM (IST)
ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता कहा जाता

वृत्तियां अपने आप में बुरी नहीं होती हैं। सवाल है उनके जुड़ने का। देव से जुड़कर सद्गुण बन जाती हैं और दानव से जुड़कर दुर्गुन। यह वैसे ही हो जाता है जैसे निर्मल जल नाली में गिरने से गंदा हो जाता है। ब्रह्मा काम के देवता हैं। काम की कोख से सृजन का जन्म होता है। इसीलिए ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता कहा जाता है। भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि मैं इच्छाओं में काम हूं। यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, किंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचारी का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है, वहां रावण का काम सर्वनाश का कारण।

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विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और र्दुव्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसका निवेश लोकसंग्रह के क्षेत्र में करते रहना चाहिए। धनसंग्रह बुरी बात नहीं है, यदि वह समाज हित में नियोजित हो। हम धन के मालिक न होकर उसके ट्रस्टी हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ चला गया, तब संतों का उत्पीड़क बन गया। शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार दोनों सृष्टि के विधान के हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। वस्तुत: काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं, तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगते हैं। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ के असंतुलन से ही विभिन्न रोग पैदा होते हैं। काम वात की तरह, लोभ कफ की तरह और क्रोध पित्त की तरह है। इसलिए काम, लोभ और क्रोध को सदैव नियंत्रण में रखने का प्रयास करना चाहिए।

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