आध्यात्मिक रहस्य
व्यक्ति अपनी रुचि, स्वभाव एवं सुविधा के अनुसार विभिन्न साधन अपनाकर मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है, किंतु ये सब ज्ञान-प्राप्ति के साधन मात्र हैं, जिनकी अंतिम उपलब्धि ज्ञान ही है।
व्यक्ति अपनी रुचि, स्वभाव एवं सुविधा के अनुसार विभिन्न साधन अपनाकर मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है, किंतु ये सब ज्ञान-प्राप्ति के साधन मात्र हैं, जिनकी अंतिम उपलब्धि ज्ञान ही है। सृष्टि, जगत, जीव, आदि का स्पष्ट अनुभव आत्मानुभूति द्वारा ही होता है, जिससे वह असत्य, भ्रम, माया, अज्ञान, प्रकृति आदि से मुक्त होकर यह अनुभव करता है कि मैं शुद्ध चेतन तत्व ब्रहृम ही हूं। अज्ञानवश ही अथवा माया के भ्रम में पड़कर मैं अपने को क्षुद्र जीव समझ बैठा था। यह अज्ञान ग्रंथि जब खुल जाती है तो जीव शिव हो जाता है, ब्रंा हो जाता है। वेदांत के अनुसार जीव ईश्वर बनता नहीं, बल्कि वह ईश्वर का ही अंश होने से स्वयं ईश्वर ही है। अज्ञान अथवा अविद्या के कारण वह अपने को उससे भिन्न क्षुद्र जीव समझ बैठा था। इस भ्रांति का निवारण आत्मानुभूति के बिना नहीं हो पाता तथा आत्मानुभूति के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
संसार में अनेक प्रकार के दुख हैं, अशांति है, राग, द्वेष, घृणा, आसक्ति, मोह, वासना, प्रेम, संघर्ष आदि सब कुछ है। इससे जीवन में न तो शांति का अनुभव होता और न ही आनंद का। पैदा होकर जीवन भर इन संघर्षो में उलझ कर अपने प्राण गंवा देता है तथा फिर दोबारा भोगने के लिए पैदा हो जाता है। उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता। यही उसकी नियति बन गई है तथा यही उसका भाग्य। इसके आगे जीवन में कुछ पाने योग्य भी है, जो उसे शाश्वत सुख व शांति दे सकता है। हमारे चारों ओर एक अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है, एक झूठी माया का आवरण है, जिससे हम इस सत्य एवं शाश्वत ज्ञान से वंचित हैं। ऐसा अनेक जन्मों से होता आ रहा है कि इतने जन्मों के अनुभव के बाद भी कुछ नहीं सीख पाया है कि इसका अंत भी किया जा सकता है। जिस क्षण हमें संसार की असारता, अस्थिरता तथा इसके मिथ्यात्व का बोध हो जाता है उसी क्षण ज्ञान-प्राप्ति के द्वारा खुल जाते हैं।
श्रीश्री दिवाकर महाराज
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