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जब राह भटक रोने लगीें मंत्री की पत्नी

संगम तीरे भूले-भटकों को मिलाने के लिए 1946 में युवाओं की टीम बनी। इसमें जनेश्‌र्र्वर मिश्र, शंभूनाथ, गणेश प्रसाद, केपी तिवारी, जेपी चतुर्वेदी और मैं था। 1954 का कुंभ हमारे लिए पहला बड़ा आयोजन थ

By Edited By: Published: Wed, 16 Jan 2013 12:50 PM (IST)Updated: Wed, 16 Jan 2013 12:50 PM (IST)
जब राह भटक रोने लगीें मंत्री की पत्नी

संगम तीरे भूले-भटकों को मिलाने के लिए 1946 में युवाओं की टीम बनी। इसमें जनेश्‌र्र्वर मिश्र, शंभूनाथ, गणेश प्रसाद, केपी तिवारी, जेपी चतुर्वेदी और मैं था। 1954 का कुंभ हमारे लिए पहला बड़ा आयोजन था। इसी में मकर संक्रांति स्नान पर्व पर भगदड़ मचने से कइयों श्रद्धालुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी। वह भयावह मंजर याद करके मेरी रूह आज भी कांप जाती है। इसके बाद 1966 का कुंभ आया तो सुविधाएं काफी बढ़ चुकीं थीं। मेला क्षेत्र में प्रकाश की व्यवस्था थी। हमारे शिविर में माइक लग गया। भूले-भटकों को मिलाने के लिए टीन के भोंपू की जगह हमारे हाथ में माइक आ गया था। इससे काफी सुविधा होने लगी। इस कुंभ में सबसे अधिक भीड़ मकर संक्रांति स्नान पर्व पर आई। दस लाख से अधिक लोगों ने संगम में डुबकी लगाने के लिए आए थे। मेले का स्वरूप छोटा होने से भीड़ अधिक नजर आ रही थी। विदेशों से भी कुछ पत्रकार मेला कवरेज के लिए आए थे। इसमें इंग्लैंड से आए रॉबर्ट अपने साथी से बिछड़ गए। भोर के चार बजे उन्हें संगम जाना था। एक स्थान पर लाखों की भीड़ देखकर उनका सिर चकरा गया। थक हारकर मेरे शिविर में रास्ता पूछने के लिए आए। वह अंग्रेजी में बोल रहे थे, इसलिए उनकी भाषा मेरी भी समझ में नहीं आई। मैं अचरज में पड़ गया, समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। मैं अंग्रेज पत्रकार की बातें सुन ही रहा था कि सिविल परीक्षा की तैयारी कर रहे राम कुमार मेरे पास आ गए। वह भी शिविर में सेवा कर रहे थे। उन्होंने अंगे्रज पत्रकार से बात करके मुझे बताया कि इन्हें संगम जाना है। तब मैंने एक व्यक्ति के साथ उन्हें संगम पहुंचाया।

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इसी कुंभ में कर्नाटक के एक मंत्री की पत्नी जया संगम क्षेत्र में आकर भटक गई। उन्हें जाना पुरी पीठ के शंकराचार्य के शिविर में था, लेकिन मेला क्षेत्र का कई चक्कर लगाने के बाद भी वहां नहीं पहुंच पा रहीं थीं। हिंदी न आने से उनकी समस्या और बढ़ गई, निराश होकर बांध पर बैठकर रोने लगी तो मेरी नजर उनके ऊपर पड़ी। मैं उनके पास पहुंचा, बात करने की कोशिश की, लेकिन भाषा समझ में नहीं आ रही थी। मैंने उन्हें कागज व पेंसिल दिया, सौभाग्य से वह पेंटिंग अच्छा बनाती थीं, उन्होंने पुरीपीठ के शंकराचार्य का नाम अंग्रेजी में लिखकर उनकी तस्वीर बना दी, जिसके सहारे मैंने उन्हें शिविर तक पहुंचवाया। मध्य प्रदेश से आई राजकली 1978 में यहां आकर भटक गई। वह अपने घर का नाम और पता ठीक से नहीं बता पा रही थीं, जिससे काफी प्रयास के बाद भी हम उनके परिजनों से नहीं मिला पाए। उन्हें साल भर महिला आश्रम में रखा गया। फिर 1979 में उनके परिजन उन्हें ढूंढते हुए प्रयाग आए तो उन्हें मिलवाया गया। 1989 का कुंभ अधिक भीड़ वाला था। श्रद्धालुओं की संख्या अधिक थी, विदेशों से आने वाले लोगों की संख्या अधिक थी। इसमें लगभग 50 हजार लोग अपनों से बिछड़े। बिछड़ने वालों में महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी अत्ताराव की मां कमला बाई भी शामिल थीं। वह पड़ोसियों के साथ मकर संक्त्रांति का स्नान करने आई थीं। सबने साथ ही स्नान किया, फिर जंक्शन के लिए पैदल निकल पड़े। बांध से नीचे जाकर कमला बाई भीड़ में अपनी टोली से अलग हो गई, उनके साथ वाले काफी आगे पहुंच गए थे। रास्ते में उन्हें कमला बाई नहीं मिली सब उन्हें ढूंढते-ढूंढते मेला क्षेत्र वापस आ गए। खोने की सूचना कीडगंज थाना में दर्ज कराई गई। वहां की पुलिस हमारे शिविर पता लगाने के लिए आई। पुलिस के साथ मैं भी उन्हें ढूंढने लगा। दो-दिन के बाद वह दारागंज स्थित संकट मोचन मंदिर में मिलीं। इसके बाद सबने राहत की सांस ली। समय के साथ मेला की रंगत बदलती गई, 2001 का कुंभ भव्यता की दृष्टि से काफी अच्छा रहा। हमने लगभग एक लाख लोगों को मिलवाया। भूले-भटकों को मिलवाने का सिलसिला आज भी जारी है। दुर्भाग्य की बात यह है कि मेरा कोई भी साथी आज इस दुनिया में नहीं है। त्रिवेणी मइया से मेरी कामना है कि जब तक सांस चले, तब तक सबको यूं ही लोगों को अपनों से मिलवाता रहूं।

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