आध्यात्मिक जीवन की आधार-शिला है तप
तप आध्यात्मिक जीवन की आधार-शिला है। तपस्वियों के जीवन की साधारण घटना भी आम आदमी के लिए आश्चर्य व कौतूहल का विषय बन जाती है। तप आधार सब सृष्टि भवानी लिखकर संत तुलसी ने इसे महिमा मंडित किया है। तपस्वी
तप आध्यात्मिक जीवन की आधार-शिला है। तपस्वियों के जीवन की साधारण घटना भी आम आदमी के लिए आश्चर्य व कौतूहल का विषय बन जाती है। तप आधार सब सृष्टि भवानी लिखकर संत तुलसी ने इसे महिमा मंडित किया है। तपस्वी अपने जीवन की दशा स्वयं निर्धारित करते हैं, जबकि सामान्य व्यक्तियों का जीवन पूर्णत: परिस्थितियों के अधीन होता है। तपस्वी तप की ऊर्जा से परिस्थिति की प्रतिकूलता को भी अपने अनुकूल बना लेते हैं। वस्तुत: तप करना या तपश्चर्या एक वैज्ञानिक प्रक्त्रिया है, जिसकी कुछ मर्यादाएं हैं। सनक में आकर कुछ भी करते रहने का नाम तप नहीं है। नमक न खाना, नंगे पांव चलना, भूखे रहना आदि क्रियाओं से शारीरिक कष्ट तो अवश्य होता है, किंतु कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं प्राप्त होता। सुनिश्चित संकल्प के साथ तपश्चर्या पर अमल गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए। तप से हमारे सुप्त संस्कारों का जागरण होता है और यह जागरण हमारे आध्यात्मिक विकास को गति देता है। तप का उद्देश्य मात्र ऊर्जा का अर्जन ही नहीं, उस ऊर्जा का संरक्षण व सुनियोजन भी है। जो अपनी ऊर्जा को संरक्षित कर लेता है वह सामर्थयवान हो जाता है। तपश्चर्या कोई चमत्कार न होकर स्वयं का परिष्कार है। जहां परिष्कार है वहां चमत्कार स्वत: होते हैं, क्योंकि परिष्कार से चित्त ऊर्जावान होता है। अहंकार तप के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। पौराणिक कथाओं से यह पता चलता है कि तपस्या करने में असुर सबसे आगे रहे हैं। तपस्या के द्वारा वे भगवान से मनचाहा वरदान प्राप्त करते रहे हैं। आलस्य को त्यागकर वर्षो तक कठोर तपस्या करने का साहस उनमें होता है, किंतु अपने अहंकार का त्याग न कर पाने के कारण वे तप से प्राप्त ऊर्जा का दुरुपयोग करते हैं। हमें इनका सदुपयोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिए। चित्त जितना शुद्घ होगा उसी अनुपात में मन स्थिर होता है। मन के स्थिर होने पर संस्कार शुद्ध होते हैं। तपस्या किए बगैर किसी को सिद्घि प्राप्त नहीं होती। इतिहास साक्षी है कि जैन धर्म के तीर्थकर महावीर स्वामी और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद ही हुई थी।
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