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जीवन के दिशावाहक

संत रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। संत रविदास जयंती [7 फरवरी] पर..

By Edited By: Published: Tue, 31 Jan 2012 08:05 PM (IST)Updated: Tue, 31 Jan 2012 08:05 PM (IST)
जीवन के दिशावाहक

संत रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन-मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। संत रविदास जयंती [7 फरवरी] पर..

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दया, करुणा, क्षमा, धैर्य और सत्यशीलता जैसे चारित्रिक गुणों और प्रेम, सौहार्द, समानता, विश्वबंधुत्व जैसे सिद्धांतों पर आधारित हमारी लोकतांत्रिक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था मूलत: मध्यकालीन भक्ति आंदोलन से उपजे मानव-मूल्यों पर आधारित है। भक्तिकालीन संतों ने जीवन जीने का जो मार्ग दिखाया, उसी पर चलते हुए हमने अपनी आधुनिक संवैधानिक व्यवस्थाओं को कायम किया है।

जीवन को दिशा देने वाले इन महापुरुषों में संत गुरु रविदास का नाम महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने संदेशों और कविताओं के जरिये जीवन-यापन की ऐसी युक्ति सिखाई, जो आज भी पूर्ण प्रासंगिक है। न सिर्फ उनकी वाणी सहज जीवनयापन पद्धति के संदेशों से ओतप्रोत है, बल्कि उनका अपना जीवन भी इस अनुपम पद्धति की जीती-जागती मिसाल है। संत रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत एवं अविस्मरणीय प्रसंगों से भरा हुआ है, जो मनुष्य को सच्चा जीवन मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित

करते हैं।

गुरु रविदास ने काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और ईष्र्या को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना है- काम क्रोध माइआ मद मतसर/ इन पंचहु मिलि लूटे/ इन पंचन मेरो मनु जु बिगारिओ। अर्थात ये पांचों शत्रु मनुष्य को भ्रष्ट कर देते हैं। रविदास जी ने अपने जीवन में भी इन पांच शत्रुओं को स्वयं से दूर रखा। रविदास जी से जुड़ी एक कथा है कि एक बार एक साधु उनके पास आया। उनकी अनन्य भक्ति और सेवा से प्रसन्न होकर उसने उन्हें एक पारस पत्थर [कहा जाता है कि इस पत्थर के स्पर्श से लोहा सोने में बदल जाता है] दे दिया, ताकि उनकी दरिद्रता मिट जाए। कुछ महीनों बाद जब वह साधु वापस आया, तो संत रविदास को उसी आर्थिक अवस्था में पाकर बड़ा हैरान हुआ। साधु ने पारस के बारे में पूछा, तो रविदास जी ने उत्तर दिया कि वह उसी जगह रखा हुआ है, जहां आप रख कर गए थे।

एक ओर ऐसी निर्लिप्तता है और दूसरी ओर आज हम हैं, जो लोभ, मोह के दलदल में धंसे हुए हैं, जिसके कारण भ्रष्टाचार, अनाचार जैसी स्थितियां समाज में व्याप्त हो रही हैं। रविदास जी ने हमेशा ऐसी स्थितियों से मुक्त रहने का संदेश दिया। मनुष्य की लोभी प्रवृत्ति पर व्यंग्य करते हुए गुरु रविदास ने लिखा है- माटी को पुतरा कैसे नचतु है/ देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरत है/ जब कछु पावै तब गरबु करतु है/ माइआ गई तब रोवनु लगतु है। अर्थात शरीर माटी का पुतला है, जो नाचता-दौड़ता फिरता है। उसे कुछ मिल जाता है तो वह गर्वीला हो जाता है, वहीं माया खत्म हुई तो रोने लगता है..। रविदास जी ने बताया कि मनुष्य मात्र घास की टाटी है, जिसे जलकर माटी में मिल जाना है- इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी/जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी/ जल की भीति पवन का थंबा, रकत बूंद का गारा/हाड़-मास नाड़ी को पिंजरू, पंखी बसै बिचारा।

संत रविदास जी ने कहा कि शरीर तो भौतिक वस्तु है, इसे तो नष्ट हो जाना है। हमें इस पर अभिमान न करके शरीर के माध्यम से अपने अंतस को निखारना चाहिए। भौतिक वस्तुओं पर अहंकार करने की तो कोई वजह ही नहीं है। क्योंकि जीवन तो भादों में उगने वाले कुकुरमुत्ते की तरह है- तू कांइ गरबहि बावली/जैसे भादउ खूंबराजु तू तिस ते खरी उतावली।।

गुरु रविदास का मानना था कि मनुष्य ईश्वर का अंश है और जिसका हृदय शुद्ध है, वह स्वयं ईश्वर का रूप है। इस संदर्भ में सोने के कंगन वाला प्रसंग काफी प्रसिद्ध है। संत रविदास ने गंगा में खोया रानी का कंगन अपनी कठौती में से निकाल कर दे दिया था। तभी से यह मुहावरा प्रसिद्ध हुआ-मन चंगा तो कठौती में गंगा।

गुरु रविदास जी का विश्वास था कि यदि सभी प्राणी विकारों को त्याग कर शुद्ध हृदय से युक्त हो जाएं, तो श्रेष्ठ समाज की स्थापना हो सकती है। संत रविदास जयंती पर यदि हम यदि उनकी शिक्षाओं पर चलें तो निश्चित ही एक श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ मनुष्य की रचना हो सकती है।

[डॉ. राजेन्द्र साहिल]

गुरु रविदास लाए चरण छो गंगा

पंजाब में होशियारपुर स्थित गढ़शंकर के पास खुरालगढ़ नामक स्थान है। यहां संत गुरु रविदास 1515 ई. में आए थे। कहा जाता है कि एक दिन जब गुरु जी खुरालगढ़ में उपदेश दे रहे थे, तो वहां जमा संगत ने उन्हें इलाके में पानी की किल्लत के बारे में बताया। उस राज्य का राजा बैन सिंह भी वहां मौजूद था। उसने भी संत जी से इस समस्या का निवारण करने की गुहार लगाई। तब संत रविदास जी ने उस स्थल से ढाई किलोमीटर नीचे की ओर जाकर अपने पैर के अंगूठे से एक पत्थर हटाया। उसके नीचे से जल की धारा बह निकली। संत जी ने राजा से कहा कि तुम जितनी दूर इस गंगा को ले जा सको, ले जाओ। यह तुम्हारे पीछे-पीछे आएगी। हां, पीछे मुड़कर मत देखना। राजा चढ़ाई की ओर चल दिया। करीब आधा किलोमीटर चलने के बाद राजा ने पीछे मुड़कर देख लिया और धारा वहीं रुक गई। आज भी खुरालगढ़ में यह जल स्त्रोत लोगों की प्यास बुझाता है। आज इस स्थान पर भव्य गुरुद्वारा है। हर वर्ष गुरु रविदास जयंती से कुछ दिन पूर्व यहां से शोभायात्रा चलकर उनके जन्मस्थान काशी में संपन्न होती है। यह यात्रा संत सरवन सिंह लुधियानावाले की अध्यक्षता में 3 फरवरी को शुरू होगी। [आदि धर्म मंडल खुरालगढ़ के प्रधान सतविंदर सिंह से बातचीत पर आधारित, वंदना वालिया बाल]

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