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परिष्कृत चेतना हैं राम

श्रीराम हमारी चेतना का परिष्कृत रूप हैं। यदि चेतना की यात्रा में राम की तरह दूर तक जा सकें, तो हम भी बन सकते हैं उनकी तरह।

By Edited By: Published: Mon, 29 Apr 2013 03:32 PM (IST)Updated: Mon, 29 Apr 2013 03:32 PM (IST)
परिष्कृत चेतना हैं राम

राम हमारे बहुत काम के हैं। किंतु सवाल है कि किस रूप में और किस तरह? यहां हमारे सामने दो रास्ते हैं और यह हम पर है कि इन दो रास्तों में से अपने लिए हम कौन-सा रास्ता चुनते हैं। पहला रास्ता यह मानने का है कि राम भगवान ही थे। दूसरा रास्ता यह मान लेना है कि वे भगवान बने। यदि आप पहले वाले रास्ते पर चलना चाहते हैं, तो जाहिर है कि आपको विशेष कुछ करना नहीं पड़ता। रामचरितमानस का अखंड पाठ, थोड़ी-बहुत पूजा-अर्चना, व्रत-उपवास पर्याप्त है। ज्यादातर लोग यही करते हैं। लेकिन यदि आपने अपने लिए दूसरा वाला मार्ग चुन लिया, तो आपको वह करना होगा, जिसे राम ने किया। दरअसल, उन्होंने अपनी चेतना को परिष्कृत किया और साधु स्वभाव अपनाया।

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पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, भगवान को मानव शरीर के रूप में इस धरती पर आना पड़ा और अपने कार्यो और विचारों से स्वयं को सिद्ध करना पड़ा। उसी तरह, जैसे किसी को भी स्वयं को एक सफल योद्धा, शासक, चिंतक, डॉक्टर, उद्यमी या किसान आदि सिद्ध करना पड़ता है। भारतीय दर्शन का उद्घोष है कि मैं ब्रह्म हूं। इसका अर्थ है कि हम सबमें ब्रह्म बनने की संभावना विद्यमान है। राम ने इसी संभावना को पकड़कर अपने जीवन की और अपनी चेतना की यात्रा शुरू कर दी। हम भी यदि इस बात का मर्म समझें, तो संदेह नहीं कि हम भी बन सकते हैं राम की तरह।

राजकुमार से भगवान बनने की इस उच्चतम यात्रा के केंद्र में रहा है- राम के द्वारा अपनी चेतना को निरंतर परिष्कृत करते रहने का प्रयास। जो कांच चमकता है, चिकना है, पारदर्शी है, वह रेत और गि˜ी से बना हुआ होता है। रेत और पत्थर को विभिन्न चरणों में शोधित करके कांच में बदला जाता है। यही है दूषित चेतना को परिष्कृत करके एक ऐसी पवित्र चेतना में परिवर्तित कर देना, जिससे वह भगवान या भगवान जैसा लगने लगे।

राम सीता को पहली बार जनक जी की वाटिका में देखते हैं। सीता जी की उस अलौकिक शोभा को देखकर राम का मन विचलित हो उठता है। उन्हें लगता है कि कामदेव ने उन्हें प्रभाव में ले लिया है। अपनी चेतना की इस स्थिति से राम चिंतित हो उठते है। उनका मन अपराधबोध से भर उठता है। इस अपराधबोध से छुटकारा पाने के लिए पहले तो उन्होंने यह बात अपने छोटे भाई लक्ष्मण को बताई, फिर गुरु विश्वामित्र से कह डाली। राम यह बात मन में भी रख सकते थे, लेकिन राम ब्रह्मांड एवं चेतना के इस अटूट नियम को जानते थे कि अपराध को स्वीकार करने का अर्थ होता है- अपराधबोध से मुक्त हो जाना। इस प्रकार राम ने अपनी चेतना को प्रदूषित होने से बचा लिया।

जो आपको प्यार करता है, उससे प्यार हर कोई करता है। बात तो तब है, जब उसे प्यार करो, जो तुमसे घृणा करता है। यह बात ईसा मसीह ने कही थी। अपनी चेतना को परिष्कृत करने की दृष्टि से यह प्रभावी तरीका है। इसे राम अपने व्यवहार में अपनाते हैं। राम-कथा के अनुसार, कैकयी राम के वनवास की, दशरथ के मरण की और अयोध्या के दुख की प्रत्यक्ष कारण थीं। इसके बावजूद जब पूरी अयोध्या राम को वनवास जाने से लौटाने के लिए जाती है, तो राम सबसे पहले कैकयी से मिलते हैं पूरे आदर के साथ। वे इस घटना के लिए समय और भाग्य को जिम्मेदार ठहराते हुए कैकयी को अपराध-बोध से मुक्त करने की कोशिश भी करते हैं।

चेतना को परिष्कृत करके इस ऊंचाई तक पहुंचा देना कि जिसमें न तो किसी के प्रति अतिरिक्त राग है और न ही रंज, आसान नहीं है। बेहतर होगा कि रामनवमी के इस पावन पर्व पर हम सभी भगवान राम के केवल इसी बिंदु पर स्वयं की चेतना को परखकर देखें। महाकवि तुलसीदास ने जीवन के अस्सीवें साल में जब स्वयं को परखने का प्रयास किया, तो उन्हें अपने निष्कर्ष को इन शब्दों में लिखना पड़ा - कबहुंक हौं वह रहनि रहौंगो। श्री रघुनाथ कृपालु कृपा ते, संत सुभाऊ गहौंगो। यह संत-स्वभाव ही चेतना की विशुद्धता की पराकाष्ठा है।

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