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लड़खड़ाती कमला को श्रद्वा का सहारा

देर से नींद लगी थी सो उठते-उठते सुबह के छह बज गए। फिर पकड़ लिया संगम जाने का रास्ता। मंदिरों में बजते घंटे, गूंजते मंत्र. कानों के रास्ते सीधे अध्यात्म की ओर ले जा रहे थे।

By Edited By: Published: Fri, 01 Feb 2013 04:11 PM (IST)Updated: Fri, 01 Feb 2013 04:11 PM (IST)
लड़खड़ाती कमला को श्रद्वा का सहारा

देर से नींद लगी थी सो उठते-उठते सुबह के छह बज गए। फिर पकड़ लिया संगम जाने का रास्ता। मंदिरों में बजते घंटे, गूंजते मंत्र. कानों के रास्ते सीधे अध्यात्म की ओर ले जा रहे थे। संगम पर पहुंचा तो वहां का दृश्य देखकर ही अ लादित हो उठा। हजारों सनातनी पतितपावनी में स्नान कर पापनाशिनी के जल से सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर रहे थे। बीच-बीच में ग्रामीण महिलाओं के भक्तिगीत से मन हर्षित हो रहा था। कुछ देर तक इस अलौकिक सुख का आनंद लेता रहा. तभी एक करुण क्त्रंदन ने इस तंद्र अवस्था को तोड़ दिया।

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नजरें चारों तरफ दौड़ाई तो पता चला कि एक वृद्धा को जोर-जोर से चिल्ला रही थी। आवाज भरी हुई थी. आंखों से अश्रु नीर बह रहे थे। हाथ में एक गठरी, साड़ी भी फटी हुई। प्रवृत्ति के अनुसार मन न माना तो पहुंच गया माई के पास। पूछा क्या हुआ माई, जवाब की जगह प्रतिउत्तर में अश्रु नीर की धार तेज हो गई। माई के आंसू इस घुमंतू को भी व्यथित करने लगे। फिर पूछा, क्या हुआ माई. तब जवाब मिला बाबू पूर्णिया से हम आइल हईं. जिंदगी में एक ही इच्छा रहे तीरथराज में नहाए क. ऊ अब पूरा हो जाई । फिर पूछा तो रोअत काहें हऊ माई, जवाब मिला. हम ना सोचले रहलीं कि इहां आवे क मौका मिली। उम्र काफी हो गईल ह. टंगरी जवाब दे देहले ह। लइका के कौनो हमसे मतलब नाही। पतोहू के कहला पे ऊ काम करेला। इहां नहाए क काफी मन रहे तो बिना बतइले टरेन पकड़ ले लेहलीं। कई नीक आदमी मिललन। थोड़ा-थोड़ा साथ मिलल त पहुंच अइलीं माई के दरबार में। कितना नीक लागत ह.। फिर पूछा-माई तू त कुछ और बतावत हउ. जब पहुंचे गइलू तो रोअत काहें हऊ? बाबू हम रोअत ना हईं इ त माई के पास आ गइलीं. कबहूं ना सोचले रहलीं कि इहां पहुचब. माई के देखत ही जोर से आपन अरजी लगावे लगलीं। बेटवा-पतोहू क दिमाग ठीक करे के कहलीं। भला हो उन लोगन के जो इ बुढि़या क लाठी बनलन.।

इस माई से काफी बातें हुईं और आंखें भी भर आईं। वृद्धा का नाम कमला था। मन सोचने लगा आखिर कमला को श्रद्धा का सहारा मिल ही गया। खैर इस वृद्धा को संगम तक पहुंचाने के बाद यह घुमंतू वापस मुड़ गया। रास्ते में उमड़-घुमड़ कर अंत:मन से निकले सवालों से सामना हो रहा था। हमारी सनातन संस्कृति में मां-बाप का तिरस्कार कहां से आ गया? जिस देश में मां को सर्वोच्च स्थान मिला है, वहां एक माई को कुंभ आने के लिए इतना संघर्ष करना पड़ा। यही सब सोच रहा था कि रास्ते में मां गंगा की रक्षा के लिए निकला विदेशियों का एक जत्था भी मिल गया। फर्राटे से हिंदी बोलने वाले ये आस्ट्रीयन भी सनातनी संस्कृति में रंगे हुए थे। इनके निवेदन अंतरात्मा को भीतर तक झकझोरने वाले थे। फिर मन सोचने लगा कि जो पुनीत कार्य हमें करना चाहिए, वह यह मेहमान कर रहे हैं। हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर की रक्षा के लिए ये कितनी निष्ठा से लगे हुए हैं। बहरहाल, ये बातें सोचते-सोचते कदम वापस अपने कैंप की ओर मुड़ चुके थे और घड़ी की सुईयां दस बजने का इशारा कर रही थीं। लेकिन इन दोनों घटनाओं ने यक्ष सवाल मन में खड़ा कर दिए। दोनों मां की दुर्दशा का। एक अपने बच्चों की प्रताड़ना की शिकार है तो दूसरी संतानों द्वारा फैलाए जा रहे प्रदूषण से।

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