पति की रक्षा के लिए हरितालिका व्रत
आलिभिर्हता यस्मात्-तस्मात् सा हरितालिका संभु सहज समरथ भगवाना। एहि विवाह सब विधि कल्याना।। जौ तपु करे कुमारी तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारि।।
आलिभिर्हता यस्मात्-तस्मात् सा हरितालिका
संभु सहज समरथ भगवाना। एहि विवाह सब विधि कल्याना।।
जौ तपु करे कुमारी तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारि।।
हमारा देश आनंदलोक है-मंगलमय लोक है। यहां हर दिन त्योहार हैं, उत्सव हैं। इसी श्रृंखला में भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि प्रांतों में सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य की रक्षा के लिए बड़ी श्रद्धा, विश्वास और लग्न के साथ हरितालिका व्रत करती हैं।
इस व्रत को सर्वप्रथम गिरिजानंदिनी उमा ने किया। इसके फलस्वरूप उन्हें भगवान शिव पति रूप में प्राप्त हुए थे। इस दिन स्त्रियां वह कथा भी सुनाती हैं जो पार्वती के जीवन में घटित हुई थी। इस कथा में पार्वती के त्याग, संयम, धैर्य तथा एकनिष्ठ पतिव्रत धर्म पर प्रकाश डाला गया है। इसे सुनने वाली स्त्रियों का मनोबल ऊंचा उठता है। इस व्रत में मुख्य रूप से शिव-पार्वती व गणेश जी का पूजन किया जाता है।
जिस त्याग, निष्ठा से स्त्रियां यह व्रत करती हैं, वह बड़ा ही कठिन है। इसमें फलाहार सेवन की बात तो दूर रही। निष्ठावाली स्त्रियां जल तक ग्रहण नहीं करती। व्रत के दूसरे दिन प्रात:काल स्नान के पश्चात व्रतपरायण स्त्रियां सौभाग्य द्रव्य एवं वायन छूकर ब्रांाणों को देती हैं। अंतत: बरऊं शंभु न त रहऊं कुआरी।। पार्वती के इस अविचल अनुराग की विजय हुई। देवी पार्वती ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में आराधना की थी। इसलिए इस तिथि को यह व्रत किया जाता है। आलिभर्हरिता यस्मात्-तस्मात् सा हरितालिका सखियों द्वारा हरी गई इस व्युत्पति के अनुसार व्रत का नाम हरितालिका हुआ।
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