ओंकार स्वरूप स्वस्तिक
देव संस्कृति में गंगा का उद्व ही मानवमात्र के कल्याण के लिए हुआ है। संभवत: इसीलिए इसके मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोच्च है।
देव संस्कृति में गंगा का उद्व ही मानवमात्र के कल्याण के लिए हुआ है। संभवत: इसीलिए इसके मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोच्च है। स्वस्तिक शब्द स्वस्ति से उपजा है, जो सु उपसर्ग एवं अस् धातु से बना है। सु का अर्थ है सुंदर अथवा मंगल तथा अस् का अर्थ है अस्तित्व या उपस्थिति। अर्थात सर्वमंगल होने की भावना इस प्रतीक में बसी है।
धर्मग्रंथों की मान्यता है कि सृष्टि की उत्पत्ति ओंकार नाद से हुई है और यह स्वर सूक्ष्म रूप में आज भी संपूर्ण ब्रंांड में गुंजित हो रहा है। इसी को प्रारंभ में स्वस्तिक रूप में अंकित किया गया। लिपि विज्ञान से जुड़े विद्वान भी मानते हैं कि प्रारंभिक अक्षर गोल न होकर खड़ी पाइयों के रूप में थे। गणेश पुराण में भी स्वस्तिक, ओंकार और गणपति को एक कहा गया है।
स्वस्तिक का मनुष्य की विकास-यात्रा के साथ बहुत पुराना नाता है। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर स्वस्तिक के आगे झुके हुए हाथी का अंकन है। रामायण में एक ऐसे जहाज का वर्णन है, जिस पर स्वस्तिक सुशोभित था।
(साभार: देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार)
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