ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है
आध्यात्मिक साधकों को सदैव इस महत्वपूर्ण बात का स्मरण रखना चाहिए कि वे ईश्वर की संतान हैं। यह ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। एक साधक को ईश्वर के साथ एकाकार होना पड़ेगा। यह बात विदित ही है कि साथ होना और एकाकार हो जाना, दो अलग-अलग आशयों से संबंधित हैं।
आध्यात्मिक साधकों को सदैव इस महत्वपूर्ण बात का स्मरण रखना चाहिए कि वे ईश्वर की संतान हैं। यह ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। एक साधक को ईश्वर के साथ एकाकार होना पड़ेगा। यह बात विदित ही है कि साथ होना और एकाकार हो जाना, दो अलग-अलग आशयों से संबंधित हैं। जब बालू और चीनी को मिलाया जाता है तब यह भौतिक मिश्रण साथ-साथ हो जाता है। चीनी और बालू साथ-साथ हो जाते हैं। वहींजब जल चीनी के संपर्क में आता है तब वह मिल जाता है, एकाकार हो जाता है। तब हम शर्बत पाते हैं। शर्बत में हम चीनी और जल को अलग-अलग तत्वों के रूप में नहीं पाते हैं। इसलिए ईश्वर के साथ साधक का मिलन साथ-साथ होने का नहीं, बल्कि एकाकार हो जाने का है। वह परम एकात्मकता ही साधक के जीवन का लक्ष्य है।
ईश्वर की ओर उन्मुख होकर इस मार्ग पर आगे बढ़ना तीन महत्वपूर्ण तत्वों पर आधारित होना चाहिए। प्रथम तत्व है प्रणिपात, द्वितीय है परिप्रश्न और तृतीय तत्व है सेवा। प्रणिपात क्या है? प्रणिपात का अर्थ है उस सर्वशक्तिमान सत्ता के चरणों में स्वयं को अर्पण कर देना। लोग अपने पुरखों को पिंड अर्पण करते हैं। एक साधक को ईश्वर की वेदी पर स्वयं को अर्पण करना होगा। इसे ही प्रणिपात कहते हैं। दूसरा तत्व है परिप्रश्न। अक्सर लोग ज्ञान के लिए प्रश्न करते हैं, सिर्फ तर्क करने के लिए प्रश्न करते हैं, किंतु यह परिप्रश्न नहीं है। परिप्रश्न का अर्थ यह जानना है कि क्या करना है और कैसे करना है। यानी वह व्यक्ति कुछ करने के लिए तैयार है। वह साधना करने के लिए तैयार है और उस उद्देश्य से वह जानना चाहता है कि कैसे करना है, क्या करना है। इस तरह का प्रश्न परिप्रश्न कहा जाता है। सामान्य प्रश्नों से साधकों को कुछ लेना देना नहीं है। एक साधक को परिप्रश्न पूछना है, मुझे क्या करना है, मुझे कैसे करना है? इसी तरह तीसरा तत्व है-सेवा। सेवा का अर्थ है दूसरे को अधिकतम सेवा देना और स्वयं के लिए कम सेवा लेना। सभी आध्यात्मिक साधक इन तीन तत्वों के माध्यम से ईश्वर से साक्षात्कार कर सकते हैं।
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