धर्म के संसार में कदम-कदम मोलभाव
वैसे तो मोलभाव मेला-बाजार का मूलमंत्र है, लेकिन धर्म-अध्यात्म का समागम कुंभ पर्व भी इसकी छाया से अछूता नहीं है। यहां कदम रखते ही बारगेनिंग शुरू होती है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, इसके रूप बदलते जाते हैं। इसके बीच हिलोरे मारती रहती है पाप के जीरो बैलेंस की चाहत।
कुंभनगर [विजय यादव]
। वैसे तो मोलभाव मेला-बाजार का मूलमंत्र है, लेकिन धर्म-अध्यात्म का समागम कुंभ पर्व भी इसकी छाया से अछूता नहीं है। यहां कदम रखते ही बारगेनिंग शुरू होती है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, इसके रूप बदलते जाते हैं। इसके बीच हिलोरे मारती रहती है पाप के जीरो बैलेंस की चाहत।
संगम आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की तरह एक निजी कंपनी के अधिकारी विजय कुमार भी गुरुवार को इस गोरखधंधे से कदम-दर-कदम रूबरू हुए। वह अपने दो साथियों संग आए थे पुण्य कमाने। जाना था संगम नोज। किनारे पहुंचते ही एक नाविक ने उनको तड़ लिया। बाबू, संगम स्नान करना है क्या? फिर नान स्टाप शुरू हुआ साहब, और सवारी नहीं बैठाएंगे। अकेले ले चलेंगे। चार सौ रुपए पड़ेंगे। सवारी के साथ चलोगे तो चालीस-चालीस देना। उसमें देर लग सकती है। कोई स्नान करेगा तो कोई अस्थि विसर्जन। फिर शुरू हुआ, मोलभाव का खेल।
तमाम ना नुकुर के बाद पुण्यार्थी बोले, डेढ़ सौ लेना है, तो चलो। बहरहाल सौदा पट गया। यह तो थी नाव के किराए की बात। संगम नोज के किनारे वोट लगते ही नाविक गाइड बन गया। संगम के कायदे-कानून और कर्मकांड के साथ ही अदृश्य सरस्वती का भूत-भविष्य बखान डाला। बताया कि यहां नहाने का बीस-बीस लगेगा। सरस्वती को नारियल चढ़ता है। नारियल का बीस अलग से लगेगा। .जबरदस्ती नहीं, तुम्हारी मर्जी हो तो चढ़ाओ। पुण्यार्थी का सवाल आया, स्नान के बीस काहे? बाबू, नाव से घाट बनाए हैं। लाख रुपये की बनती है नाव।
तभी काशी से पहुंचे अनिल कुमार संगम में डुबकी मारकर निकले। उनके कानों में आवाज गूंजी। बच्चा, वचन से बंध गए हो। वे बेचारे भौचक थे। जुबां तक हिलाई नहीं और वचन से कैसे बंधा गया? आवाज को अनसुना किया और आगे बढ़ लिए। एक बाल तिलकधारी भी उनके पीछे हो लिया। वचन से बंध चुके हो, राजा की तरह हो, तुम्हारे बाल-बच्चों का कल्याण होगा, भरपेट भोजन नहीं कराओगे। पीछा जारी रहा और बाल संत का हठ भी। तय-तोड़ के साथ समझौता भरपेट भोजन की जगह चाय पर हुआ।
यहां से पीछा छुड़ाकर निकले ही थे कि कानों में आवाज पड़ी। गीता फ्री में लो। गीता फ्री ले लो। आफर बुरा नहीं था। मुफ्त में कुछ मिल रहा हो तो भीड़ जुट ही जाती है लेकिन स्टाल पर भीड़ जितनी तेजी से जमा हो रही थी, उतनी ही तेजी से छंट रही थी। ऑफर के साथ कुछ शर्ते भी लागू थीं। पचास रुपये की एक किताब खरीदने पर गीता का ज्ञान मिलना था। यही बाजार है। हर बाजार के कुछ उसूल होते हैं तो बाजारवाद के कुछ फार्मूले और टोटके। बाजार के इन्ही फंडों-हथकंडों के रास्ते कुंभ क्षेत्र में पाप-पुण्य के बैलेंस की सौदेबाजी जारी है। बुजुर्ग मोक्ष की हसरत लिए हैं तो बाकी पाप के जीरो बैलेंस का 12 साला स्टेटमेंट लेने को जुट रहे हैं।
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