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परहित सरिस धर्म नहिं भाई

मानव जीवन के लिए जो कुछ भी ईष्ट, कल्याणकारी, शुभ, आदर्श हो उसे जीवन-मूल्य माना गया है। मानव समाज ही मूल्यों को निर्धारित करता है, ग्रहण और अपनी आवश्यकतानुसार ही उसे बनाता, बिगाड़ता या बदलता है

By Edited By: Published: Tue, 28 Aug 2012 10:47 AM (IST)Updated: Tue, 28 Aug 2012 10:47 AM (IST)
परहित सरिस धर्म नहिं भाई

मानव जीवन के लिए जो कुछ भी ईष्ट, कल्याणकारी, शुभ, आदर्श हो उसे जीवन-मूल्य माना गया है। मानव समाज ही मूल्यों को निर्धारित करता है, ग्रहण और अपनी आवश्यकतानुसार ही उसे बनाता, बिगाड़ता या बदलता है। उस समाज में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति उन मूल्यों को पाना चाहता है। समाज में उसी को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है जो उस समाज के मूल्यों को धारण किए रहता है। ऐसे श्रेष्ठ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के आचरण से ही शेष जन प्रभावित होते हैं और उनका अनुसरण करते हैं।

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जीवन-मूल्य अस्थिर होते हैं। वे युगीन विचारधारा से प्रभावित होकर परिवर्तित होते रहते हैं। भारत अध्यात्म प्रधान देश रहा है अत: यहां के लोगों के जीवन में अध्यात्म और धर्म की प्रधानता थी। जीव मात्र पर दया, उसकी सेवा की भावना, यही सबसे बड़ा धर्म माना गया था-परहित सरिस धर्म नहिं भाई। इसी धर्म-भाव से हमारे जीवन-मूल्य भी जुड़े थे। धीरे-धीरे चिंतन बदला। चिंतन से विचार बनते हैं और विचारों से धारणा बनती है तथा धारणा से मूल्यों का निर्माण होता है अत: जीवन-मूल्य भी बदल गए। सेवा, त्याग, ममता, प्रेम, उपकार का स्थान धन-संचय, स्वार्थ, लिप्सा आदि ने ले लिया और यही जीवन-मूल्य बन गए। इस प्रकार जीवन मूल्य बदल गए, पर मानवीय मूल्य सदा स्थिर रहते हैं। वे आज भी वही हैं, जो पहले थे, क्योंकि मानवीय मूल्य शाश्वत हैं। सामाजिक व्यवस्था और विचारधारा के परिवर्तन से मानवीय मूल्यों के प्रति विश्वास और आस्था में कमी आ सकती है, पर वे परिवर्तित नहीं होते। आज की सर्वाधिक ज्वलंत समस्या मूल्य संकट ही हैं। वैज्ञानिक प्रगति, प्रौद्योगिक विकास, अर्थ प्रधानता के कारण अनेक प्रश्न-चिह्न खड़े हो गए। हर व्यक्ति कुंठा, अवसाद और हताशा में जीने के लिए विवश हो रहा है। इसके लिए हमें अपना चिंतन बदलना होगा, पुराने जीवन मूल्यों को फिर से अपनाना होगा। हमें बुद्ध, महावीर, महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों के आदर्शो पर चलना होगा। तुलसीदास, प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों की मानवतावादी दृष्टि को समाज में पुन: प्रतिष्ठित करना होगा, तभी भारत अपने खोए हुए गौरव को पुन: पा सकेगा। डॉ. सरोजनी पांडेय

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