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.तो नई दिशा देंगे महामंडलेश्वर

निरंजनी अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी सोमेश्वरानंद गिरि का आश्रम राजस्थान के चुरू में हैं। चुरू के शिवानंद विद्यालय से शिक्षा दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने 26 वर्ष की उम्र में सांसारिक जीवन त्याग करके संन्यास ले लिया। वे वेदांत से आचार्य हैं। सितंबर 1984 में उन्होंने महामंडलेश्वर प्रकाशानंद से दीक्षा ली।

By Edited By: Published: Thu, 24 Jan 2013 02:49 PM (IST)Updated: Thu, 24 Jan 2013 02:49 PM (IST)
.तो नई दिशा देंगे महामंडलेश्वर

निरंजनी अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी सोमेश्वरानंद गिरि का आश्रम राजस्थान के चुरू में हैं। चुरू के शिवानंद विद्यालय से शिक्षा दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने 26 वर्ष की उम्र में सांसारिक जीवन त्याग करके संन्यास ले लिया। वे वेदांत से आचार्य हैं। सितंबर 1984 में उन्होंने महामंडलेश्वर प्रकाशानंद से दीक्षा ली। 1998 में हरिद्वार कुंभ में उनको निरंजनी अखाड़े ने महामंडलेश्वर की पदवी दी। स्वामी जी के देश में कई आश्रम हैं। प्रमुख आश्रम सिद्धिमुख चुरू, मुकुंदगढ़ शेखावती और गंगानगर में है। हरिद्वार में भी एक आश्रम हैं। कई गौशालाएं हैं।

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संन्यासी क्यों बने, यह विचार कब मन में आया?

-चुरू, राजस्थान जहां मैं वेदांत की शिक्षा ग्रहण कर रहा था, वहां 1984 में संतों का एक सम्मेलन आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में चारों पीठ के शंकराचार्य , महामंडलेश्वर और साधु-संत एकत्र हुए थे। सम्मेलन में जैन धर्म को लेकर शास्त्रार्थ हुआ था। सम्मेलन पूरे एक माह तक चला। इसी में संतों से मिलने का अवसर हुआ और मुझे लगा कि सनातन धर्म के प्रचार के लिए संन्यासी बनना जरूरी है। सम्मेलन के तीन माह बाद सितंबर में मैंने संन्यास ले लिया।

संन्यासी और महामंडलेश्वर बनने के दौरान आपने क्या किया?

-गुरु सेवा। सनातन धर्म का गहन अध्ययन। संतों की सभाओं में जाना शुरू किया। हिमालय में साधना की। फिर चुरू में अपना आश्रम स्थापित किया। यहां गौसेवा की। तीन गौशालाएं स्थापित कराई। राजस्थान के अकालग्रस्त क्षेत्र में गरीबों की सेवा की। नेत्र शिविर आयोजित किए। कथा, प्रवचन करना शुरू किया। यज्ञ व हवन कराए।

संत को महामंडलेश्वर बनने की जरूरत क्यों पड़ती है?

-संत को महामंडलेश्वर अखाड़े बनाते हैं। हम तो सिर्फ धर्म मंच खड़ा करते हैं। समाज में धर्म का प्रचार प्रसार और लोगों को जागरूक करने का काम हमारा है। संतों की रक्षा के लिए अखाड़े हैं। आदि शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। वे धर्म रक्षक हैं और हम धर्म प्रचारक। मुश्किल समय में अखाड़े सनातन धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं।

क्या अखाड़े आपको आमंत्रित करते हैं?

-यह दोनों तरफ से होता है। हम भी महामंडलेश्वर बनने के लिए अखाड़ों के पास जाते हैं। अखाड़े भी अपनी तरफ से महामंडलेश्वर बनाने के लिए संतों से संपर्क करते हैं। वैसे भी अखाड़ा हमारा मुख्यालय है।

महामंडलेश्वर बनने की योग्यता क्या है?

-वेदों का ज्ञान। शास्त्रार्थ में निपुणता। आचार्यवान। चरित्रवान। धैर्यवान। सनातन धर्म के प्रचार प्रसार में संलग्न। देश -विदेश में सम्मान।

महामंडलेश्वर बनने के लिए क्या धनवान होना भी जरूरी है?

-सभी योग्यताओं के साथ धनवान होना जरूरी है। ऐसा इसलिए कि अखाड़े हमारे रक्षक होते हैं। ऐसे में धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं और उससे जो धन अर्जित होता है वह अखाड़ों को दिया जाता है। अखाड़ों को अपना खर्च चलाने के लिए धन की जरूरत होती है तो वह कहां से आएगा।

जैसे अखाड़ा परिषद है वैसे ही महामंडलेश्वर परिषद बनने की बात उठ रही है?

-इसमें बुराई क्या है। सभी महामंडलेश्वर एक मंच पर आएंगे तो समाज को फायदा होगा। उनकी बात एक जगह एकत्र होकर सब सुन सकते हैं। यह एकता का प्रतीक भी है। इससे समाज को नई दिशा मिलेगी।

ऐसे में अखाड़ों का क्या रुख रहेगा?

-महामंडलेश्वर परिषद अखाड़ों के विरोध में नहीं बन रहा है। वैसे भी अखाड़े हमारे लिए माननीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं। अखाड़ों का रुख सकारात्मक है। इसीलिए इस बार कुंभ क्षेत्र में महामंडलेश्वर नगर बसा है। सभी महामंडलेश्वर अखाड़ों के सामने ही बसे हैं। यह अखाड़ों की पहल का ही नतीजा है।

आपका सनातन धर्म के प्रचार में क्या योगदान है?

-देश के विभिन्न स्थानों पर प्रवचन, कथा और यज्ञ करना। लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाना। पाश्चात्य संस्कृति के विरोध में लोगों को जागरूक करना। सनातन संस्कृति और वैदिक धर्म से लोगों को अवगत कराना।

कथा प्रवचन के लिए आप देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं, आपको क्या भिन्नता दिखाई देती है?

-असम, कर्नाटक, हरियाणा में मेरा ज्यादा जाना होता है। राजस्थान में आश्रम में होने के कारण यहां के बहुत से लोग इन प्रांतों में बसे हैं। इनके आमंत्रण पर मैं वहां कथा, पूजा हवन के लिए जाता हूं। असम में लोग बहुत सीधे और अच्छे हैं। वहां जो उग्रवाद है उससे स्थानीय निवासी खुद भी परेशान हैं। राजनीतिक कारणों से भी वहां स्थिति खराब है लेकिन हिंदू धर्म के प्रचार प्रसार में लगे लोगों के लिए कोई दिक्कत नहीं है।

आपको नहीं लगता है कि संतों के साथ उच्चवर्गीय ही जुड़ा है?

-ऐसा आपको दिख रहा है। कथा प्रवचन में सामान्य व्यक्ति का जुड़ाव है। वे भक्ति भाव से आते हैं और यज्ञ हवन में शामिल होते हैं। उच्च वर्ग का भी संतों के पास आना लोगों को इसलिए दिखता है कि वे वाहन से आते हैं। उनकी विशिष्ट शैली के कारण वे अलग दिखते भी हैं।

समाज में गिरावट का क्या कारण है?

-भाईचारा खत्म हुआ है। देश जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ है। सभी जातियां सनातन धर्म से निकली हैं। सामवेद में उल्लेख है कि नाना प्रकार के पंथ उत्पन्न होने से सनातन धर्म कमजोर होगा। सनातन धर्म भाईचारे की प्रेरणा देता है। इससे मानव एकता स्थापित होगी। ऐसा यदि हो जाए तो पूरा देश स्वर्ग बन जाएगा।

धर्म के प्रचार प्रसार में देश के विभिन्न हिस्सों मे जब आप जाते हैं तो आपको क्या कठिनाई महसूस होती है?

- भाषा को लेकर दिक्कत आती है। असम और दक्षिण भारत में कथा प्रवचन सुनने को लोग आते हैं लेकिन हिंदी भाषा का ज्ञान नहीं होने के कारण उन्हें हमारी बात समझने में परेशानी होती है। संस्कृत का ज्ञान भी इधर लोगों का कम है।

गंगा प्रदूषित हो गई। इस दिशा में आप क्या कर रहे हैं। इसमें किसका ज्यादा दोष है?

-इसमें पूरे समाज का दोष है। गंगा की आज जैसी स्थिति है वैसी मुगल और अंग्रेजों के शासन काल में भी नहीं थी। आजादी के बाद गंगा प्रदूषित होती चली गई। इसमें राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने वाले लोगों की भूमिका ज्यादा हैं। यह लोग गंगा को अपवित्र कर रहे हैं। साधु समाज इस दिशा में काम कर रहा है। सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं। इनसे कुछ होने वाला नहीं है। जब तक कल कारखाने और नालों का गंदा पानी गंगा में जाने से नहीं रोका जाएगा प्रदूषण समाप्त नहीं होगा। गंगा का अस्तित्व समाप्त हुआ तो फिर कोई भागीरथी गंगा को दोबारा इस पृथ्वी पर लेकर नहीं आएगा।

शंकराचार्य को लेकर उठे विवाद पर आपकी क्या राय है?

शंकराचार्य की अपनी गरिमा है। शासन को उनकी बात स्वीकार्य करना चाहिए। आदि शंकराचार्य ने चार पीठ की स्थापना की थी। यह सभी को मालूम है। अब इन पीठ पर जो बैठे हैं, उन्हीं की स्वीकार्यता है। चतुष्पथ का गठन कुछ भी गलत नहीं था।

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