Move to Jagran APP

अपने लिए जिए तो क्या जिए

सदियों से चली आ रही नारी शक्ति की तमाम गाथाओं को अपने तरीके से चरितार्थ कर रहीं हैं कानपुर की कुछ महिलाएं...

By Babita kashyapEdited By: Published: Tue, 12 Apr 2016 02:59 PM (IST)Updated: Tue, 12 Apr 2016 03:04 PM (IST)
अपने लिए जिए तो क्या जिए

आज समाज में ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है, जो बिना किसी लोभ-लालच के समाज के उत्थान के लिए कार्य कर रही हैं। कोई अनाथ बच्चों के लिए स्कूल चला रही हैं, तो कोई एसिड पीडि़तों के लिए काम कर रही हैं। कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं, जो लाखों का पैकेज छोड़ समाज कल्याण के कामों में लगी हुई हैं, तो कुछ महिलाएं क्लब बनाकर गरीब तक भोजन पहुंचाने में जुटी हैं, वहीं कुछ सोशल साइट्स के जरिए भी सक्रिय हैं। ये महिलाएं आज की नारी शक्ति हैं, जिनके पास भले ही वरदान देने की ताकत न हो लेकिन लोगों की जिंदगी बदलने का जज्बा जरूर है।

loksabha election banner

हमेशा साथ होने का अहसास जरा सोचिए क्या कोई अपने चार माह के बच्चे को घर पर छोड़कर दूसरों के बच्चे को संभालने जाएगा। ऐसा सिर्फ वो मां ही कर सकती है, जो स्पेशल बच्चों को उनकी मां से बेहतर समझती हो। ऐसा ही कुछ किया नेहरू नगर स्थित पहल पुर्नवास विकलांग केंद्र चलाने वाली शैली शर्मा ने। मुंबई स्थित सेंटर फॉर जेनेटिक हेल्थ केयर से क्लिनिकल जेनेटिक्स का कोर्स करने के बाद उनको बड़े-बड़े इंस्टीट्यूट और हॉस्पिटल से ऑफर आए, पर उन्होंने उसे ठुकराकर स्वयं सेरेब्रल स्कूल खोलने का फैसला किया। यहां वह फ्री में बच्चों का इलाज करती हैं। शैली बताती हैं, 'कोर्स करने के बाद मैंने शुरुआत एक सेरेब्रल स्कूल से की। उसके बाद मुझे कई जगह से बड़े पैकेज के ऑफर आए, पर जॉब के दौरान एहसास हुआ कि वहां इनके साथ ठीक व्यवहार नहीं हो रहा है और पैरेंट्स को परेशान किया जाता है। फिर मैंने स्वयं इनके लिए स्कूल खोलने का फैसला किया। ये बच्चे मुझे अपनी मां से अधिक समझते हैं और मुझे भी इनकी छोटी सी आहट से पता चल जाता है कि वो क्या चाहते हैं? मां जब आसपास होती है, तो हर मुश्किल आसान हो जाती है। बस हम इन्हें यही अहसास दिलाते हैं कि हम हमेशा उनके साथ हैं।'

साझा किया मां का दर्द

एक मां का दर्द, भला मां से बेहतर कौन समझ सकता है। अपने बेटे को इस परेशानी से जूझते देखने के बाद डॉ. दीप्ती मिश्रा ने मैकरॉबटर््गंज हॉस्पिटल में वर्ष 2007 में स्पेशल बच्चों के लिए संकल्प डे केयर सेंटर प्रारंभ किया। यदि वह चाहती तो फुल टाइम प्रैक्टिस करके आराम से रह सकती थीं, पर उन्होंने अपने बेटे के दर्द को समझा और अपनी जैसे अन्य मांओं की मदद के लिए यह सेंटर स्टार्ट किया।

वह बताती हैं, 'डॉक्टर होने के बावजूद जब मुझे इतनी परेशानी हुई, तो साधारण मांओं पर क्या गुजरती होगी? यही सोचकर मैंने यह सेंटर खोला। मुझे प्रैक्टिस से अधिक इन बच्चों को खुश देखकर अच्छा लगता है। इन बच्चों को केवल प्यार की जरूरत होती है।

ये खुश रहें और इन्हें थेरेपी मिलती रहे तो ये ठीक होते जाते हैं। एक मां से बढ़कर दुनिया में प्यार कौन दे सकता है? हम इन्हें मां जैसा प्यार व अपनापन देकर सिखाते हैं।'

बेसहारों का जन्नत

जरूरी नहीं है कि मातृत्व सुख के लिए बच्चे को जन्म ही दिया जाए या किसी अपने करीबी के बच्चे को गोद लेकर परवरिश की जाए। इसे साबित किया है न्यू आजाद नगर में 'हेवेन होम' नाम से बेसहारा बच्चों के लिए संस्था चलाने वाली प्रोमिला इंगले और इनकी बहन मंजुली पीटर ने। अपनों के प्यार और परवरिश से वंचित ऐसे बच्चों को मां का प्यार, शिक्षा और उनकी परवरिश करने वाली यह दोनों बहनें वर्तमान में इस तरह के 12 बच्चों की मां हैं। यहां रहने वाले बच्चों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। हाल ही में संस्था में पली-बढ़ी रिंकी द्विवेदी की शादी इस संस्था ने कराकर उसे नई जिंदगी जीने की राह दी है। ये बच्चों को मां का प्यार देती हैं तो बच्चे भी इन लोगों को छोटी मां, बड़ी मां के संबोधन से ही पुकारते हैं।

प्रोमिला बताती हैं, ''वर्ष 2001 में हेवन होम की शुरुआत के साथ ही हम लोगों ने शादी न करने का निर्णय लिया था। अब जिंदगी का मिशन ऐसे बच्चों की जिंदगी संवारना है। खुशी होती है कि हम उन बच्चों के लिए काम कर रहे हैं जिन्हें प्यार और सम्मान के साथ जिंदगी जीने की दरकार होती है। इसीलिए कोशिश रहती है कि खाने-पीने से लेकर इनकी शिक्षा में किसी तरह की कमी न रहने पाए। यह अच्छा मिशन है, इसलिए हमें समाज के लोगों को भी भरपूर सहयोग मिलता है।'

छोड़ी सरकारी नौकरी अपने लिए तो सभी जीते हैं लेकिन दूसरों के लिए जीवन के बड़े अवसर को छोड़ देने का जज्बा शायद कम ही लोगों में होता है। कछियाना मोहाल की रीता शुक्ला बहुत सामान्य परिवार से ताल्लुक रखती हैं। ग्रेजुएशन करने के बाद रीता को सीआईएसएफ में नौकरी मिली लेकिन बचपन की तंगहाली और अभावों को जी चुकीं रीता ने नौकरी करने के बजाय नि:शुल्क शिक्षा देने का संकल्प लिया। घर पर ही कक्षा एक से दस तक के बच्चों को वर्ष 2006 से नि:शुल्क शिक्षा दे रहीं रीता के पढ़ाए बच्चे इंजीनियरिंग व व्यावसायिक शिक्षा की पढ़ाई कर रहे हैं। वे बताती हैं, 'इस समय हमारे पास लगभग चालीस बच्चे हैं, जो सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं लेकिन उनके पास कोचिंग या ट्यूशन का विकल्प नहीं है। हम ऐसे बच्चों को मुफ्त में शिक्षा उपलब्ध करा रहे हैं। अकेले इतने बच्चों को पढ़ाना संभव नहीं हो पाता इसलिए दो-तीन ऐसी लड़कियों को अपने साथ जोड़ रखा है, जो पढ़ रही हैं। कुछ अभिभावक फीस के रूप में अगर पचास या सौ रुपए दे देते हैं तो हम वह राशि इन सहयोगी शिक्षिकाओं में बांट देते हैं। मेरा उद्देश्य है कि ऐसे अधिक से अधिक बच्चों को पढ़ा सकूं, जिससे वे बेहतर कॅरियर बना सकें।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.