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वामिनी सेठी के जज्बे को सलाम

वामिनी सेठी ने हाल ही में अपने बाइक के शौक के जरिये ही विश्व के सबसे ऊंचे व सबसे ठंडे युद्ध स्थल पर तिरंगा फहराकर देश को गौरवान्वित किया है।

By Suchi SinhaEdited By: Published: Sun, 04 Dec 2016 10:00 AM (IST)Updated: Sun, 04 Dec 2016 11:05 AM (IST)
वामिनी सेठी के जज्बे को सलाम

वामिनी ने हाल ही में अपने बाइक के शौक के जरिये ही विश्व के सबसे ऊंचे व सबसे ठंडे युद्ध स्थल पर तिरंगा फहराकर देश को गौरवान्वित किया है। उन्होंने एक महीने के सियाचिन दौरे के दौरान जीवन की हकीकत, परेशानियों, सेना की पीड़ा व डर को देखा, जीया महसूस किया। ट्रैक पूरा करने के बाद की खुशी को बयान करने के लिए वामिनी के पास आज शब्द कम पड़ रहे हैं। खुशी के साथ वहां की हकीकत, सेना की पीड़ा हमेशा के लिए आंखों में बस गई है। उनके मुताबिक वह जीवन की सबसे अधिक संतुष्टि देने वाला काम था।

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टूटते टूटते बचा धैर्य

सियाचिन का ट्रैक बेहद कठिन था। हमारी तीन चरणों में ट्र्रेंनग हुई जिसमें इतनी सख्ती थी कि आंसू निकल जाते थे। ऐसे में अधिकतर लोग यहीं से वापस चले गए थे। ट्र्रेंनग के बाद चढ़ाई में सामान का भार और चार किलो के जूते थे जिसे पहनकर चलना बेहद मुश्किल था। तमाम मुश्किलों को झेलते हुए 17वें दिन आखिर धैर्य जवाब दे गया कि आखिर वे ऐसा कर क्यों रही हैं? लेकिन हिम्मत जुटाई फिर खड़ी हुई और मंजिल पर पहुंचकर अपनी जिद का का पता चला। वामिनी बताती हैं कि वहां पहुंचकर जो खुशी व आत्म संतुष्टि मिली वह अद्वितीय थी। 16 हजार फीट की ऊंचाई पर बने कुमार पोस्ट पर सफलता पूर्वक पहुंचने वाले लोगों में वामिनी एक थी। तीन हजार लोगों में से चालीस का चयन हुआ जिसमें आठ लड़कियां थी और इस ट्रैक को सफलता पूर्वक करने वाली तीन महिलाओं में मैं भी शामिल हो सकी। और मेरे लिए सबसे उत्साहित करने वाली बात यह थी कि बगैर आर्मी बैकग्राउंड वाली मैं अकेली थी।

तीन साल बाद मिली सफलता

2012 में पहली बार वामिनी को पता चला कि 2007 से शुरू हुए आर्मी के इस ट्रैक में सिविलियंस भी जा सकते हैं। ऐसे में उन्होंने 2013 में पहली बार अप्लीकेशन डाली लेकिन उनका चयन नहीं हुआ। 2015 में मौका मिला तो आफिस से छुट्टी नहीं मिल सकी, वामिनी ने फिर भी हार नहीं मानी और इस बार उन्हें न केवल मौका मिला बल्कि प्रतिभा व दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते अपने आप को साबित भी किया।


माउंटेन बार्इंकग का शौक
वामिनी माउंटेन बाइकर भी हैं। लगातार और कठिन प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा ले चुकी हैं। दिल्ली आगरा रोड पर 2011 में 250 किलोमीटर की रैली में अकेली महिला साइकलिस्ट थी। इसके अलावा हिमालय की 550 किलोमीटर की सात दिनों की रैली में भी हिस्सा लिया। हाथ की चोट ने इस बार वामिनी को लेह से लेकर थाईलैंड
तक की बार्इंकग ट्रिप पर जाने से रोक लिया तो उन्होंने आर्मी के सियाचिन ट्रैक पर जाने का मन बनाया।


परिवार का सहयोग देता है हिम्मत
दिल्ली से पढ़ी लिखी वामिनी को अब तक जो सफलता मिली है उसका श्रेय वे अपने पिता महेंद्र सेठी व माता मनजीत सठी को देती हैं। उनके मुताबिक माता पिता व पति विनोद ने आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित किया। रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड में वाइस प्रेसिडेंट के पद पर कार्यरत वामिनी परिवार के सहयोग की वजह से ही घर के
दायित्वों, अपने शौक व जॉब के बीच सामंजस्य बैठा पाती हूं। इस बार भी परिवार ने ही संबल दिया, माता पिता के अलावा सास व पति ने भी अपनी ट्र्रेंनिग पर ध्यान देने पूरा समय दिया। मेरा तो यही मानना है कि आप अपने शौक को कभी फीका मत पड़ने दो


माता पिता का डर
वामिनी को जहां परिवार का सहयोग मिलता रहा है वहीं इस बार उनके माता पिता नहीं चाहते थे कि वामिनी इस ट्रैक पर जाएं। वहां पर आतंकी वारदातों व ऊंचाई व ठंड के चलते माता पिता को डर लग रहा था। अपनी बेटी
के जज्बे पर भरोसा था लेकिन आतंकवाद जैसी चीजों से उन्हें डर लग रहा था। उसी ट्रैक के दौरान कश्मीर में आतंकी हमले हुए थे जिसके बाद घर वालों ने उनसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन एक महीने तक किसी से कोई संर्पक नहीं हो सका।
प्रियंका दुबे मेहता, गुरुग्राम

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