दुनिया की सबसे सुंदर भाषा है रंगमंच
गायिका और अभिनेत्री इला अरुण के लिए रंगमंच आनंद का सर्वोच्च स्रोत है। जहां पहुंचकर कुछ और पाने की ख्वाहिश नहीं रह जाती।
लोग उन्हें राजस्थानी लोक गीतों में पॉप की धड़कन के लिए जानते हैं, पर वह रंगमंच को मानती हैं अपना पहला प्रेम। गायिका और अभिनेत्री इला अरुण के लिए रंगमंच आनंद का सर्वोच्च स्रोत है। जहां पहुंचकर कुछ और पाने की ख्वाहिश नहीं रह जाती। 'सुरनाई थियेटर एंड फोक आर्ट फाउंडेशन' की संस्थापक इला अरुण से उनके रंगमंच पर हुई बातचीत के अंश
संगीत को एक नई धड़कन देने वाली इला अरुण बहुत समय से संगीत की दुनिया में नजर नहीं आ रहीं, कहां गुम हैं?
संगीत की दुनिया से गुम नहीं हूं, कुछ मसरूफ हूं। मैं इन दिनों अपने नाटक 'पीर गनी' को लेकर दर्शकों के बीच हूं। पहले मुंबई में इसके शो हुए, फिर जम्मू अब श्रीनगर जाने का इरादा है और देश के कई अन्य भागों में भी यह नाटक खेलेंगे हम। पीर गनी वास्तव में नार्वेयिन लेखक हेनरिक इब्सन के नाटक 'पीर गिंट' का भारतीय रूपांतरण है। जिसे मैंने स्वयं रूपांतरित किया है। हमारे समूह सुरनाई थिएटर एंड फोक आर्ट फाउंडेशन के लिए के.के. रैना ने इसका निर्देशन किया है। रैना और मैं इस नाटक को लीड कर रहे हैं।
नाटक में दिलचस्पी कैसे हुई?
रंगमंच तो मेरे लिए पहला प्यार है। मैंने एनएसडी से एक्टिंग में शॉर्ट टर्म कोर्स किया है। लंबे समय से थिएटर भी करती रही हूं। 1992 में मैंने अपना फॉर्मल गु्रप बनाया जिसमें वीरेंद्र राजदान, विजय कश्यप और के.के. रैना जैसे मंझे हुए कलाकारों का साथ मिला। मैंने कई नाटकों का अनुवाद किया है। मेरा लिखा नाटक छोटा कश्मीर खूब चर्चित हुआ। अभी भी कई नाटकों पर काम कर रही हूं। थिएटर जीवन और संबंधों को समझने की समझ देता है। पति-पत्नी के संबंधों पर मैंने एक नाटक लिखा 'रियाजÓ। जैसे अच्छी गायकी के लिए लगातार रियाज की जरूरत होती है, उसी तरह पति-पत्नी के संबंध भी ऐसे हैं कि इन्हें निभाने के लिए लगातार भावनाओं के रियाज की जरूरत होती है। इसी को मैंने इस नाटक में रेखांकित किया। जब कुछ नहीं कर रही होती तो समझिए कि थिएटर ही कर रही हूं। घर चलाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ता है, सो बाकी सब चलता रहता है, लेकिन अगर आप जिम्मेदार नागरिक हैं तो थिएटर उस जिम्मेदारी को निभाने का मौका देता है।
एक देश के रंगमंच को दूसरे देश की संवेदनाओं तक पहुंचाने के लिए किस किस्म की मेहनत करनी पड़ती है?
किसी भी नाटक को पढ़कर या देखकर हम जो पहली बार महसूस करते हैं, असल में वही रंगमंच की मूल भावना है। रंगमंच ऐसी भाषा है जो सारी दुनिया समझती है। फिर चाहे वहां की मूल भाषा, मूल पहनावा या रहन-सहन कुछ भी हो। थिएटर असल में इंसानियत की तमीज सिखाता है। इस इंसानियत को एक परिवेश से उठाते हुए दूसरे परिवेश में लाना ही एडॉप्टेशन है। इसके लिए थोड़ी सी मेहनत, थोड़ा सा शोध और आत्मीय संवेदनाएं चाहिए होती हैं। 1992 में मैंने जब यह समूह बनाया तो इसका नाम रखा सुरनाई। सुरनाई राजस्थानी में शहनाई को कहते हैं। इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि कश्मीरी लोक में भी शहनाई से मिलते-जुलते वाद्य को सुरनाई ही कहा जाता है। यह मूल संवेदनाओं का मेल है। धीरे-धीरे इस समूह में जम्मू-कश्मीर से संबंध रखने वाले कई कलाकार और युवा प्रतिभाएं जुड़ती चली गईं। के. के. रैना, विजय कश्यप, वीरेंद्र राजदान आदि ने इस मेल और स्नेह को और बढ़ाया। इस तरह कश्मीर बार-बार मेरी जीवन यात्रा में आता-जाता रहा है।
रंगमंच पर कुछ झूठ और कुछ सच के साथ संवेदनाओं को अतिरंजित कर प्रस्तुत किया जाता है। आप क्या कहती हैं?
हम सब जीवन के सच्चे-झूठे किस्से जीते हैं। जैसे लोक में मांएं, दादी-नानियां कुछ किस्से सुनाती हैं। इनके पात्र भले ही झूठे होते हों, पर इनमें मौजूद संवेदनाएं सच्ची होती हैं। यही सच थिएटर का भी है। यहां झूठे गढ़े गए पात्रों के साथ सच्ची भावनाओं की बात की जाती है। हम अपनी रफ्तार में जीवन की इन सच्चाइयों को समझ नहीं पाते, पर जब भी आप मंच पर आते हैं, कोई रोल करते हैं तो उसे करने के लिए आपको अपने जीवन की इन सच्चाइयों के करीब जाना पड़ता है। 'पीर गनीÓ नाटक के लिए रैना कहते हैं कि मां की मृत्यु के दृश्य में मैं बहुत भावुक हो जाता हूं। मुझे उसे देखकर अपने पिता याद आ जाते हैं और मैं उनसे कहती हूं कि मुझे उस वक्त अपनी मां याद आने लगती है। अंतिम समय पर पीर गनी मां से कहता है कि मां सब बातें छोड़, चल कुछ गपशप करते हैं और मां के किरदार में मैं कहती हूं कि 'अब क्या गपशप करनी है, जब मेरे पास वक्त ही नहीं है।Ó यही जीवन की सच्चाई है। जब हमारी मां या हमारे पिता हमसे बात करना चाहते हैं तो हम जीवन की दौड़ में भाग रहे होते हैं। जब तक लौटते हैं तो समय ही नहीं बचता गपशप के लिए। मैं मानती हूं कि जब भी कोई अभिनेता या अभिनेत्री किसी मंच पर अभिनय कर रहा होता है तो वह उस शाम अपने जीवन का एक सच दर्शकों को सौंप रहा होता है।
आप नाटक के बाद भी रोल में गुम नजर आती हैं और हर बार भावुक हो जाती हैं। यह भूमिका की कामयाबी है या व्यक्तित्व की कमजोरी?
यह सच है कि मैं हर बार बहुत भावुक हो जाती हूं। नाटक खत्म होने के बाद भी मुझ पर जैसे उन्हीं भावनाओं का हैंगओवर रहता है। मैं कैरेक्टर से बाहर नहीं निकल पाती। मेरे लिए यही साधना है। यह तभी संभव है जब आप पूरी तरह रोल में शामिल हो जाएं। उसकी संवेदनाओं में स्वयं को उतार ले जाएं। मैं हैरान होती हूं उन लोगों को देखकर जो मेकअप करते-करते आते हैं, रोल करते हैं और दूसरी असाइनमेंट या प्रोग्राम के लिए चले जाते हैं। उनके लिए शायद यह काम है, पर हमारे लिए यह आनंद का परम स्रोत है। इसमें दाखिल होने के बाद हमें किसी और आनंद की जरूरत ही नहीं पड़ती।
सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए रंगमंच कितना मददगार हो सकता है?
इंसान को इंसान समझने के लिए जिस समझ की जरूरत होती है, रंगमंच वह समझ आपको सिखाता है, जो थिएटर से किसी भी तरह से जुड़े हैं वे जानते हैं कि अगर थिएटर उनकी जिंदगी में नहीं होता तो कितना कुछ कम होता। कोई एक नाटक एक या दो घंटे की अवधि में वह सब कुछ कह जाता है जिसे समझने के लिए शायद पूरी जिंदगी कम पड़ जाती है। लोगों को गुम हो रही संवेदनाओं के प्रति जागरूक करने में सबसे ज्यादा मजबूत भूमिका अदा करता है रंगमंच। यह दुनिया की सबसे सुंदर और आत्मीय भाषा है।
योगिता यादव