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संगीत के आसमान का रौशन सितारा

सितार के तारों से पूरी कायनात को बाध लेने वाले महान संगीतकार पं. रवि शकर दुनियाभर में भारतीय संगीत का परचम लहराए हुए हैं।

By Edited By: Published: Sat, 07 Apr 2012 01:17 PM (IST)Updated: Sat, 07 Apr 2012 01:17 PM (IST)
संगीत के आसमान का रौशन सितारा

सितार के तारों से पूरी कायनात को बाध लेने वाले महान संगीतकार पं. रवि शकर दुनियाभर में भारतीय संगीत का परचम लहराए हुए हैं। समकालीन भारतीय शास्त्रीय संगीत के सबसे कामयाब चेहरे के रूप में पद्मभूषण, पद्मविभूषण, भारत रत्न, रमन मैग्सेसे और ब्रिटेन के ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश अंपायर 'नाइटहुड' जैसे शीर्ष सम्मानों से सम्मानित रविशकर में 92 साल की उम्र में भी सितार के प्रति वही उत्साह और दीवानगी है, जो दशकों पहले हुआ करती थी।

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शास्त्रीय संगीत शिक्षक और गायक मोहनदेव कहते हैं, ''पंडित रवि शकर को सितार बजाते देखना एक सुखद अनुभूति है। खयाल, ठुमरी और धुप्रद जैसी संगीत विधाओं से प्रेरित रवि शकर के सितार से निकली मधुर ध्वनिया अलौकिक वातावरण बना देती हैं।''

हाल ही में रविशकर ने बेंगलूर में बेटी अनुष्का शकर के साथ एक कार्यक्रम पेश किया जिसमें अपने चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने संगीत प्रेमियों को एक बार फिर सम्मोहित कर लिया। इस पर पंडित मोहनदेव कहते हैं कि रविशकर के संगीत पर उम्र का कोई असर नहीं दिखता बल्कि उम्र के साथ उनके सितार का साज और कर्णप्रिय हो गया है।

शास्त्रीय संगीत और सितारवादन विषय पर शोध कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र अनुकूल दत्ता का कहना है कि रवि शकर उर्फ रवींद्र शकर चौधरी का संगीत जीवन भारतीय शास्त्रीय संगीत के वैश्विक उत्थान का प्रतीक है। रविशकर ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को सीमाओं के पार पहुंचाया और दुनिया भर में अपने प्रशसक बना लिए।

सात अप्रैल, 1920 को वाराणसी में जन्मे रविशकर पहले अपने भाई उदय शकर के नृत्य समूह में नाचते थे, बाद में सितार की तरफ उनका झुकाव हुआ और वह अलाउद्दीन खान से सितार वादन सीखने लगे।

1950 के दशक में आई सत्यजीत रे की अपू श्रृंखला की फिल्मों पाथेर पंचाली, अपराजितो और अपूर संसार में दिए संगीत के साथ पंडितजी की ख्याति दुनिया भर में फैलने शुरू हो गई। 1956 में उन्होंने यूरोप और अमेरिका में कार्यक्रम प्रस्तुत किए। अपने विश्व दौरों के दौरान एहूदी मेनहीन और जॉर्ज हैरिसन जैसे पश्चिमी संगीत कलाकारों से उनकी मित्रता हुई।

हैरिसन से मित्रता और बीटल्स के साथ ने रवि शकर को एक अंतर्राष्ट्रीय हीरो बना दिया। रवि शकर का उद्देश्य भारतीय और पूर्व की संगीत संस्कृति की प्रतिष्ठा से पश्चिम को रूबरू कराना था जिसमें वह सफल भी रहे।

तीन गै्रमी पुरस्कारों के विजेता पंडित रविशकर का असली नाम रवींद्र था। अपने बंगाली नाम रवींद्र शकर चौधरी को छोटा करते हुए अपना नाम रवि शकर रख लिया।

1967 में रवि शकर को वेस्ट मीट्स इस्ट म्यूजिक कार्यक्रम के लिए पहला ग्रैमी पुरस्कार मिला। पंडितजी के बारे दत्ता कहते हैं, ''पंडित जी के सितारवादन की शैली अलग है। वह आलाप, जोर आदि से इसकी शुरूआत करते हैं। उन्होंने ही सबसे पहले जुगलबंदी शैली को बढ़ावा दिया। उन्होंने तिलक श्याम, नट भैरव और बैरागी जैसे कई नए रागों की शुरूआत की।''

रविशकर की लिखी आत्मजीवनिया 'माई म्यूजिक, माई लाइफ' और 'राग मेला' भी संगीतप्रेमियों और संगीत के किसी भी छात्र के लिए संगीत के ज्ञान का विराट संसार और एक अनमोल विरासत हैं। इस विरासत को आने वाली पीढि़या भी संभालकर रखना चाहेंगी।

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