खुद को जाना तो सब जान लिया
वह नृत्यांगना हैं, ब्यूरोक्रेट हैं, पर उनका मिजाज है एक मोटिवेशनल गुरु का। अनेक मोर्चे पर विजेता रहीं और पद्मश्री व संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से नवाजी गईं भरतनाट्यम व कुचिपुड़ी नृत्यांगना आनंदा शंकर जयंत ने कैंसर जैसी असाध्य बीमारी पर भी जीत हासिल की है
वह नृत्यांगना हैं, ब्यूरोक्रेट हैं, पर उनका मिजाज है एक मोटिवेशनल गुरु का। अनेक मोर्चे पर विजेता रहीं और पद्मश्री व संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से नवाजी गईं भरतनाट्यम व कुचिपुड़ी नृत्यांगना आनंदा शंकर जयंत ने कैंसर जैसी असाध्य बीमारी पर भी जीत हासिल की है
नृत्य से जुड़ाव कब हुआ?
जब मैं नौ साल थी, मेरी मां मुझे एक मंदिर ले गईं। वहां किसी महिला ने मां से कहा इस लड़की के पैर लंबे हैं, आप इसे डांस के लिए क्यों नहीं भेजतीं। मां खुद डांस टीचर थीं। उन्होंने फौरन पूछ लिया कि इसे डांस सिखाने तो भेज दूं, पर कहां भेजूं, इसे सिखाएगा कौन? उस महिला ने कहा मैं हूं न, मैं सिखाऊंगी इसे। वही मेरी डांस गुरु बनीं। वहीं से शुरू हुआ मेरी जिंदगी का सफर, जिसमें नृत्य का सबसे बड़ा योगदान है।
मां-पिताजी ने शिक्षा पर जोर नहीं दिया?
उस समय मैं पढ़ाई कर रही थी। एक बढिय़ा स्टूडेंट थी, पर जैसा कि आप जानती होंगी दक्षिण भारत में कला की अहमियत बहुत है। बच्चों को इसकी शिक्षा जरूरी मानी जाती है। इसका अर्थ यह नहीं था कि पढ़ाई को महत्व नहीं दिया जाता। मेरे पिताजी और मां दोनों ने मुझे पढ़ाई और कला दोनों में निपुण बनाने के लिए मुझे पूरी स्वतंत्रता दी, कोई दबाव नहीं था। पिता चाहते थे मैं बेसिक शिक्षा जरूर प्राप्त कर लूं और कम से कम 10वीं कर ही लूं।
अब तो उत्तर भारत में भी कला को लेकर काफी सजग हैं अभिभावक?
हां, लेकिन मुझे यह देखकर दुख होता है कि कला को बस खुद की संतुष्टि के लिए अपनाया जा रहा है, इसे पूरा तवज्जो नहीं मिल पा रहा। आज भी ज्यादातर अभिभावक बस इसे सजावटी सामान की तरह समझते हैं। इसे अलग से बस शौकिया तौर पर अपनाया जाता है। इसलिए कला के प्रभाव से जिंदगी अछूती रह जाती है, बच्चे इसे समझ नहीं पाते कि कला हमारी जिंदगी को कितना खूूबसूरत बना सकती है। दरअसल, शिक्षा के साथ कला का समावेश जरूरी है। इसमें भी कोटा होना चाहिए। इससे कला को अपनाने की प्रेरणा मिलेगी। कला से जुड़ाव बढ़ेगा तो व्यक्तिगत विकास भी होगा। करी पत्ता की तरह नहीं होना चािहए कि मनोरंजन हो बस या आप लोगों को बता सकें कि हम भी इस कला में माहिर हैं।
ब्यूरोक्रेट बनने का ख्याल कब आया?
मैंने फुलटाइम डांस करते-करते पढ़ाई की। हैदराबाद में पढ़ाई करने के दौरान कई परफॉर्मेंस दिए। कॉमर्स में डिग्री ली थी। पढ़ाई प्राइवेट ही रही। इस दौरान कॉलेज क्या होता है, ये सब पता नहीं था। अचानक लगा ग्रेजुएशन काफी नहीं है। मास्टर्स करना चाहिए। यूनिवर्सिटी कैंपस क्या होता है, कॉलेज बंक करना क्या होता है, मस्ती क्या होती है पता ही नहीं था। मैं इसका अनुभव लेना चाहती थी। एंसिएंट हिस्ट्री कल्चर ऐंड आर्कियोलॉजी पसंद था। इस विषय में यूनिवर्सिटी टॉप किया। जेआरएफ भी मिला। उसी दौरान कैंपस में देखा कि काफी सारे लोग कोई एग्जाम दे रहे हैं। पूछने पर पता चला सिविल सर्विसेज का एग्जाम है। मेरी रुचि बढ़ी। मैंने भी यह एग्जाम देने का मन बनाया। तैयारी की और हंसी मजाक में ही यह एग्जाम भी दिया। इस दौरान मां ने कई बार कहा कि तुम्हारा डांस छूट जाएगा, मत करो यह सब, पर मैं यह अनुभव भी लेना चाहती थी। इसे चुनौती की तरह ही लिया। अंतत: सेलेक्शन हो गया। रेलवे ट्रैफिक सर्विस में मैं फस्र्ट लेडी ऑफिसर बनी।
शादी कब हुई, अपने वैवाहिक जीवन के बारे में बताएं?
मैं मजे में अपनी नौकरी कर रही थी कि अचानक मेरे भावी जीवनसाथी से मुलाकात हुई। यह बड़ी रोचक मुलाकात थी। मैं रेलवे सर्विस में थी और मेरे पति जयंत द्वारकानाथ मार्केटिंग में थे। यह मेरे ऑफिस में जेरॉक्स मशीन लगवाने आए और अपना दिल देकर चले गए। जयंत के रूप में मैंने एक बेहतरीन दोस्त भी पाया है, जो हर मोर्चे पर मेरे साथ-साथ चलते हैं। मुझमें आत्मविश्वास भरते हैं और हर मुश्किल में ढाल बनकर साथ खड़े मिलते हैं। मैं रेलवे ऑफिसर हूं, डांसर हूं, डांस टीचर हूं, कई मोर्चे पर सक्रिय हूं, लेकिन जब उनके साथ हूं बस एक पत्नी, एक दोस्त हूं।
इतने मोर्चे पर सक्रिय रहना आसान नहीं है, कैसे संतुलन बनाती हैं?
संतुलन सबसे पहले अपने जेहन में बनाना होता है। जब आपका लक्ष्य स्पष्ट रहता है, पैशन साथ होता है तो समय प्रबंधन हो जाता है। मेरा लक्ष्य है कि मैं अपने जॉब में बेस्ट परफॉर्मेस दूं। साथ ही साथ समाज को भी कुछ योगदान दूं। इसलिए कभी नहीं समझा कि एक स्त्री हूं तो घर के कामकाज करूं ही। मैं कभी खाना नहीं बनाती, सपोर्ट सिस्टम की मदद लेती हूं। मेरा पूरा फोकस रहता है कि कला के प्रसार-प्रचार में, इसे लेकर कोई समझौता नहीं करती।
भारतीय महिलाओं का कितना विकास हुआ है?
बहुत बदलाव हुए हैं, पर यह जरूर कहूंगी कि स्त्री की पारंपरिक छवि आज भी वही है, जो पहले थी। इस छवि को तोडऩे के लिए मीडिया की भूमिका खास है। वह चाहे तो वह स्त्री की बनी-बनाई छवि को तोड़ सकता है। वह वास्तविक स्त्री से परिचय नहीं कराता या तो खूब ग्लैमर दिखाता है या गहने-जेवर लदी-फदी, बंधनों में जकड़ी स्त्री को। हम-आप जैसी स्त्रियों से परिचय हो तो लोगों को पता चले कि स्त्री बदली है और काफी बदल रही है।
सुना है आप कैंसर जैसी बीमारी की शिकार बनीं और उससे उबरीं भी?
हां, मैं अपने पैशन में डूबी थी, जिंदगी पटरी पर थी कि अचानक एक अलग मोड़ पर आकर खड़ी हो गई जिंदगी। डांस का एक बड़ा आयोजन होना था, उसमें देश की बड़ी-बड़ी शख्सियत शिरकत करने वाली थी, मैं इस आयोजन को किसी कीमत पर कामयाब बनाना चाहती थी कि अचानक जिंदगी में बड़ा जर्क आया, पता चला मुझे बे्रस्ट कैंसर हो गया है। मेरे पति उस दौर में अपने चट्टानी मनोबल के साथ खड़े थे। वह बखूबी जानते थे कि मैं जिद्दी हूं, जुनूनी हूं। मुझे कोई भी मुसीबत डिगा नहीं सकती। केमोथेरेपी हुई। मेरे बाल गिर गए, लेकिन मेरा डांस नहीं छूटा। सर्जरी के बाद बिग पहनकर डांस करने का वह दौर मेरे साथ-साथ कइयों को नहीं भूला होगा...। वह जिंदगी की किताब के एक पन्ने की तरह पलट गया। अब जिंदगी के दूसरे चैप्टर को पढ़ रही हूं।
आप मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं?
जिंदगी सब सिखा देती है। हौसला बड़ी चीज है, जिसे कभी नहीं खोना चाहिए। मेरा कैंसर पर दिया गया स्पीच देश के टॉप 12 कैंसर टीईडी स्पीच में से है। डांसर, कोरियोग्राफर के रूप में ही नहीं, मुझे मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर भी बुलाया जाता है तो मैं एक ही बात कहती हूं कि जिंदगी में खुद को जानना पहली चीज है, इसके बाद आप सब आसानी से समझने लगते हैं।
जो स्त्रियां हुनरमंद हैं, पर आगे नहीं बढ़ पा रहीं, उनसे क्या कहेंगी?
आपका हुनर आपसे कोई नहीं छीन सकता। आपकी जिंदगी पर आपका पूरा हक है, इसे समझें। अपना फैसला लेने की ताकत पैदा करें। आत्मविश्वास है तो सब संभव है।
सीमा झा