अनुशासन प्रिय और असरदार
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का सम्मान सभी सांसद करते हैं। कम शब्दों में कही गई उनकी बातें इतनी असरदार होती हैं कि अपनी बात कहने के लिए ऊंचे स्वर में बोलते सांसद भी अनुशासनप्रिय हो जाते हैं। शायद इसीलिए इंदौर की जनता ने उन्हें लगातार आठवीं बार चुनकर संसद भेजा...
लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन का सम्मान सभी सांसद करते हैं। कम शब्दों में कही गई उनकी बातें इतनी असरदार होती हैं कि अपनी बात कहने के लिए ऊंचे स्वर में बोलते सांसद भी अनुशासनप्रिय हो जाते हैं। शायद इसीलिए इंदौर की जनता ने उन्हें लगातार आठवीं बार चुनकर संसद भेजा...
पद की गरिमा उनके चेहरे से झलकती है। प्रश्न चाहे कितना भी पेंचीदा हो, वह हंसते हुए बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात रख देती हैं। ये हैं लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन। छोटी उम्र से ही आरएसएस की शाखा से जुड़ी सुमित्रा जी समाजसेवक, देसी खेलों की प्रेमी और प्रवचनकर्ता भी रह चुकी हैं। सकारात्मक सोच और अध्यात्म के प्रति गहरा लगाव उन्हें औरों से अलग करता है। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश...
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में अब तक का अनुभव कैसा रहा?
संसद में मेरा लगभग 25 साल समय बीत चुका है। स्पीकर पैनल में होने की वजह से मैं इस वातावरण से अनभिज्ञ नहीं थी। स्पीकर का पद बहुत जिम्मेदारियों वाला होता है। मैंने शुरुआत में ही यह संकल्प लिया था कि सबको साथ लेकर सदन चलाना है। मेरे सामने जो भी काम आते हैं, उन्हें मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाती हूं।
आपने किस तरह गोडसे उपनाम को असंसदीय शब्दों की सूची से हटाया?
हमारे जो सांसद हैं, जिनका उपनाम गोडसे है, उन्हें इसकी वजह से अजीब हालातों का सामना करना पड़ता है। नाथूराम गोडसे ने 1948 में गांधी को मारा और 1956 से इस शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मैंने इस संदर्भ में राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन से भी चर्चा की। इसके बाद मैंने यह निर्णय लिया।
सांसदों के लिए किसी जरूरी योजना पर काम कर रही हैं?
मैं एक ऐसा ग्रुप बना रही हूं, जिसे सपोर्टिव ग्रुप टू पार्लियामेंट मेंबर्स कहा जा सकता है। इसमें अलग-अलग विषयों पर अभ्यास करने वाले सात-आठ रिसर्च स्कॉलर होंगे। पार्लियामेंट के मेंबर अगले दिन जिस मुद्दे पर संसद में चर्चा और बहस करेंगे, उनके बारे में यदि वे विस्तार से जानना चाहते हैं तो यह ग्रुप उनकी मदद करेगा।
पहले की अपेक्षा लोकसभा में अधिक बैठकें हो रही हैं, जबकि विवादित मुद्दे भी उठे हैं। यह किस तरह संभव बनाया?
मैं किसी भी सांसद की बात को व्यक्तिगत तौर पर नहीं लेती हूं। कभी-कभी कुछ बातें सुनकर गुस्सा तो आता है, लेकिन उसे नियंत्रित करने में भी सक्षम हूं। अगर मुझे लगता है कि कोई सांसद तेज आवाज में बोल रहे हैं तो उस समय तो उन्हें चुप कराने की कोशिश करती हूं। बाद में मैं उन्हें अपने चैंबर में बुलाकर उनसे पूछती हूं कि आप अपना मुद्दा उठाना चाहते हैं या फिर यूं ही तेज आवाज में सिर्फ चिल्लाना? मैं उनके साथ बातचीत कर निपटारा करती हूं।
युवा सांसदों के व्यवहार के बारे में बताना चाहेंगी?
अभी संसद में दो तिहाई लोग युवा हैं। वे सीखना चाहते हैं। कुछ तो मुझसे पूछने आते हैं कि इस मुद्दे को संसद में किस तरह उठाना चाहिए? जो तरीके मुझे मालूम हैं, उन्हें बताती हूं। इससे सांसदों के साथ बढिय़ा संपर्क स्थापित हो गया है। वे समझना भी चाहते हैं।
विपक्ष का संख्याबल कम है। फिर भी उन्हें बोलने का मौका देती हैं?
लोकतंत्र में विपक्ष का अपना महत्व है। हम कहते हैं निंदक नियरे राखिये। अगर बढिय़ा काम करना है तो निंदक भी साथ में रखो। विपक्ष अगर सत्ता पक्ष के कामकाज में कुछ कमी-बेशी निकालता है तो सरकार को भी चीजों को समझने का अवसर मिलता है।
आठ बार लोकसभा चुनाव जीतने के पीछे राज क्या है?
इंदौर के कार्यकर्ताओं की वजह से मैं जीत पाई। उन्हीं के बल पर मैं निरपेक्षता से काम कर पाई। वहां की जनता ने मुझे प्रामाणिक बनाया। दूसरी ओर, मैं स्पष्टवादी हूं। लोगों के बीच भी मेरी यही इमेज है। मैंने जनता से कभी झूठा वादा नहीं किया।
गैर-मर्यादित ढंग से बोलने वाले सांसदों को किस तरह संभालती हैं?
आपकी आंखों में यदि तेज है, लेकिन भाषा सौम्य है तो आपके व्यक्तित्व का दूसरों पर प्रभाव पड़ता है। यह कई सालों का मेरा अनुभव है। अमर्यादित ढंग से बोलने वाले लोग बुरे नहीं होते हैं। दरअसल, बातों को पटल पर रखने का उनका तरीका अलग होता है। हिंदुस्तान की यही विशेषता है। हर प्रदेश के लोगों के बोलने का अपना स्टाइल है। उन्हें उसी तरह देखना चाहिए।
पुरुषों के बीच जगह बनाना कितना कठिन है?
सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। मेहनत, पराक्रम और आत्मविश्वास के बल पर कुछ भी हासिल किया जा सकता है। एक महिला के लिए किसी भी फील्ड में काम करना कठिन होता है। आप अपना व्यक्तित्व कुछ इस तरह का बनाएं कि सामने वाला आपका बेजा फायदा न उठा पाए। कठिन परिस्थितियों को किनारे कर आगे बढ़ा जा सकता है।
कब तय किया कि राजनीतिज्ञ बनना है?
मैं कभी राजनीतिज्ञ नहीं बनना चाहती थी। इमरजेंसी के दौरान मुझे लगा कि लोगों पर अन्याय हो रहा है। जेल में लोगों को यूं ही नहीं डाल देना चाहिए। यह तो लोकतंत्र का अपमान है, तभी मैंने विरोध जताना शुरू कर दिया। इससे पहले मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता थी। पार्टी को लगा कि मैं कुछ कर सकती हूं। इस तरह मैं लोगों की नजरों में आ गई।
पिताजी के विचारों का आप पर कितना प्रभाव पड़ा?
पिताजी पुरुषोत्तम साठे का मुझ पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। वे संघचालक थे। संभाग के प्रमुख थे। जितने भी बड़े नेता गांव आते थे, वे हमारे घर-परिवार के सदस्य के रूप में रुकते थे। गुरु गोलवलकर जैसे व्यक्ति मेरे घर आए थे। मैं सभी नेताओं का सूक्ष्मता से अवलोकन करती रहती। यही मेरी पूंजी है बचपन से।
शादी के बाद ससुराल वालों का सपोर्ट कितना रहा?
जब मैं हायर सेकंडरी में थी, तो मेरे पिताजी चल बसे। मेरी माताजी आठ साल की उम्र में ही गुजर गईं। जब मैं शादी करके आई तो सास-श्वसुर के रूप में मुझे दूसरे माता-पिता मिल गए। इतने अच्छे सपोर्ट की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। मेरे श्वसुर जी ने मेरी शिक्षा पूरी कराई। शादी के बाद मैंने बीए, एमए, एलएलबी किया। सासू जी शांता बाई महाजन बहुत कोऑपरेटिव थीं। हम दोनों घर का काम साथ मिलकर निबटाते और साथ मिलकर घर से बाहर निकलते।
भारतीय खेलों से आपका विशेष लगाव है?
बचपन में मैं खूब खेलती थी। मस्ती करती थी। मेरा मानना है कि जो बच्चा खेलेगा, उसके व्यक्तित्व का चहुंमुखी विकास होता है। इससे वह अपने साथियों के साथ अपना सामान, यहां तक कि सुख-दुख की बातें भी बांटना सीखता है। नेता होने के कारण मैं खेलों को बढ़ावा देना अपना दायित्व मानती हूं और मैंने खूब प्रयास भी किए। आज भी कर रही हूं। भारतीय खेलों खासकर खो खो, कबड्डी को ज्यादा प्रश्रय देती हूं।
योग-अध्यात्म से कितना जुड़ाव है?
योग से जुड़ी नहीं हूं, लेकिन अध्यात्म का अभ्यास करती हूं। प्रवचन, कीर्तन सुनना मुझे बचपन से पसंद था। आध्यात्मिक चीजें पढ़ती रहती हूं। भगवत भजन करने का मतलब मेरे लिए मंदिर जाना नहीं, बल्कि ईश्वर से तार जुड़े रहना है। गणेशजी का विशेष पूजन करती हूं।
आप खास तरह की साडिय़ां पहनती हैं?
सूती और सिल्क दोनों तरह की साडिय़ां पहनती हूं। मेरा मानना है कि पब्लिक अपीयरेंस के समय आपका पहनावा सलीकेदार होना चाहिए।
आपके आदर्श कौन-कौन हैं?
हमें बताया गया है कि मातृत्व जीजाबाई की तरह, कृतित्व अहिल्याबाई और नेतृत्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरह होना चाहिए। यही तीनों मेरे आदर्श हैं। जब मैं इस क्षेत्र में आई तो अहिल्याबाई के मूल्यों और आदर्शों को अपने अधिक करीब पाया। मुश्किल हालातों का असर उन्होंने अपने काम पर कभी नहीं पडऩे दिया।
स्वयं के बारे में एक वाक्य में क्या कहना चाहेंगी?
मैं तो एक सामान्य महिला हूं। मेरे मन में भाव है कि मैं अपने काम से लोगों के बीच जानी जाऊं। मैं हमेशा पॉजिटिव सोचती हूं।
स्मिता