अब इतनी बेबाक हो चुकी है अनारकली
कलई खोलने वाली कहानियों के मामले में बिंदास होने लगा है बॉलीवुड। इसी कड़ी में आ रही है अविनाश दास निर्देशित ‘अनारकली ऑफ आरा’।
वर्जनाओं, दोहरे मापदंडों की कलई खोलने वाले विषयों को मेनस्ट्रीम सिनेमा में अच्छी-खासी जगह मिलने लगी है। ‘द डर्टी पिक्चर’ से शुरू हुआ यह सिलसिला ‘पिंक’ और ‘एनएच-10’ से होते हुए ‘अनारकली ऑफ आरा’ तक आ पहुंचा है। अविनाश दास निर्देशित इस फिल्म की नायिका अनारकली है जिसे स्वरा भास्कर निभा रही हैं।
मर्दवादी सोच पर प्रहार
स्वरा बताती हैं, ‘अनारकली आरा जिले की एक देसी गायिका है। वह मेलों, शादी-ब्याह और स्थानीय आयोजनों में द्विअर्थी गाने गाती है। ऐसा वह जीविकोपार्जन के लिए करती है। समाज का एक धड़ा ऐसा नहीं मानता। खासकर ताकत के मद में चूर सामंती सोच के लोग। भरी महफिल में इलाके का दबंग नेता उसकी अस्मत पर हाथ डालता है, इस पर अनारकली उसके खिलाफ संघर्ष करती है। ‘पिंक’ में जो ‘न मतलब न’ का नारा था कि आप लड़कियों की मर्जी के खिलाफ उनके संग कुछ कर नहीं सकते, यहां उसे और आगे ले जाया गया है। वहां यह बात आम लड़कियों के लिए थी, यहां हमने नाचने- गाने वालियों पर भी यही लागू करने की बात की है।’
सिल्क से भी मजबूत
स्वरा बताती हैं, ‘यह किरदार समझने के लिए मैंने आरा व अमरोहा की बदनाम गलियों की खाक छानी। अनारकली सी युवतियों से मिली। मैं दंग रह गई कि महज कुछ पलों के अंतराल में ही वे द्विअर्थी गानों से निर्गुण गीत गाने लग जाती थीं। वे खुद को आर्टिस्ट मानती हैं और विषम परिस्थितियों में काम करती हैं। उन्हें और करीब से जानने के लिए मैं एक लाइव शो में गई। वहां देखा कि वे पूरे आत्मविश्वास और सम्मान के साथ नाच-गा रही हैं। यह जाहिल तमाशबीन हैं, जो उन्हें क्षमायाचक बनाने पर आमादा रहते हैं। अनारकली की जंग के जरिए उन तमाशबीनों को कटघरे में खड़ा किया गया है।’
नोच दिया है नकाब
अब सिनेमा में छोटे शहरों की बात होती है।स्वरा कहती हैं, ‘यह बड़ी अच्छी बात है,जो हार्टलैंड की कहानियां मुख्यधारा में दिखने लगी हैं। ‘एनएच-10’ हो, ‘दम लगाके हईशा’ या ‘निल बटे सन्नाटा’, तीनों फिल्मों ने मल्टीप्लेक्स और सिंगल स्क्रीन के लोगों के दिलों को छुआ। हमारी फिल्म का फलक बहुत बड़ा है और बड़ा बारीक भी। यह उन लोगों की सोच पर तरस खाता है, जो लड़कियों के चरित्र को तौलते हैं। ऐसी मानसिकता गांव से लेकर महानगरों तक पसरी हुई है। हमने वैसी सोच वालों के चेहरे से ‘सभ्य’ का नकाब नोच फेंका है। जाहिर है यह हर तबके को कनेक्ट करेगी।’
सेंसर से समझौता नहीं
अभी फिल्म को सेंसर बोर्ड की सीढ़ी से पार होना बाकी है। स्वरा कहती हैं, ‘हां, फिल्म में गालियां हैं। वह अनारकली और उसके जानने वालों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। सेंसर बोर्ड को ध्यान में रखकर हमने उससे समझौता नहीं किया। हमने दो वर्जन शूट और डब किए हैं। एक गालियों के साथ, दूसरी उसके विकल्पों के संग। सेंसर बोर्ड का दो सालों से जो रवैया है, वह समाज की कड़वी हकीकतों को किस्से की शक्ल में कतई नहीं आने देगा। यह न सिर्फ कला, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी पर भी प्रहार है। ऐसे में हम किरदार की व्यथा और भाव को कैसे पेश कर सकेंगे? लोगों को कैसे झकझोर पाएंगे? देखते हैं सेंसर बोर्ड का क्या रवैया रहता है या ‘उड़ता पंजाब’ सी जंग लड़नी पड़ती है। मुझे तो लगता है कि भारत में इन दिनों सबसे बड़ा झूठ यही चल रहा है कि हमें अभिव्यक्ति की आजादी है।’
अमित कर्ण
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