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सब कुछ अपने आप मिलता गया

बिहार के छोटे से शहर नवादा की असीमा भट्ट ने अपनी हिम्मत और जुनून के दम पर रंगमंच पर अपनी अलग पहचान बनाई है। धारावाहिक 'मोहे रंग दे' और 'बैरी पिया' में उन्होंने सशक्त अभिनय कर दर्शकों की वाहवाही भी बटोरी। वह इन दिनों फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं भी निभा

By Babita kashyapEdited By: Published: Wed, 15 Jul 2015 04:41 PM (IST)Updated: Wed, 15 Jul 2015 04:44 PM (IST)
सब कुछ अपने आप मिलता गया

बिहार के छोटे से शहर नवादा की असीमा भट्ट ने अपनी हिम्मत और जुनून के दम पर रंगमंच पर अपनी अलग पहचान बनाई है। धारावाहिक 'मोहे रंग दे' और 'बैरी पिया' में उन्होंने सशक्त अभिनय कर दर्शकों की वाहवाही भी बटोरी। वह इन दिनों फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं भी निभा रही हैं...

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इन दिनों आप क्या कर रही हैं?

मैं अपने क्रांतिकारी पिता सुरेश भट्ट पर किताब लिख रही हूं। एक तरफ तो वह बिहार के जन आंदोलनों के अग्रणी नेता थे तो दूसरी तरफ कबीर की तरह फक्कड़। इसलिए मैंने किताब का नाम रखा 'मन लागो यार फकीरी में'। इस किताब पर काम करते हुए आत्म स्वाभिमान और आत्म संतोष से भरी हुई महसूस कर रही हूं। मुझे उनकी बेटी होने पर गर्व है।

आगे की क्या योजना है?

मेरी जिंदगी योजनाओं से कभी नहीं चली। सब कुछ अपने आप होता गया। जैसे शादी नहीं करने का इरादा होने के बावजूद जनकवि आलोक धन्वा से शादी हो गई। दिल्ली आने के बाद अमृता प्रीतम से उनके घर पर मुलाकात हुई। नासिरा शर्मा की कहानी पर अभिनय करने का मौका मिला। कृष्णा सोबती, कुर्तुल एन हैदर, राजेंद्र यादव, एम एफ हुसैन जैसे बड़े लोगों से मैं मिल पाऊंगी, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। आगे कुछ अच्छी फिल्में करने का मन है और पूरी दुनिया घूमना चाहती हूं।

बिहार से मुंबई की यात्रा कैसी रही?

परिवार में कोई भी अभिनय से नहीं जुड़ा है। मैं अपने परिवार की बिगड़ी हुई लड़की मानी जाती थी। नवादा में नुक्कड़ नाटक करने के कारण मां मुझे मारती थीं तो नौकरी मिलने का बहाना बनाकर पटना चली आई। मैंने अपने से 25 साल बड़े व्यक्ति से अंतरजातीय विवाह किया। शादी के बाद जब मुश्किलें बढ़ीं तो मैं पटना से हटने की कोशिश करने लगी। उस समय मैंं एनबीटी में काम करती थी। दिल्ली आकर मैंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लिया। मैं दस साल तक एनएसडी से जुड़ी रही। पर्याप्त पैसा न मिलने के कारण मुझे मुंबई आना पड़ा। यहां आते ही मुझे काफी अच्छा काम मिला। अभी भी लोग मुझे 'बैरी पियाÓ की बड़ी ठकुराइन के रूप में याद करते हैं।

दिल्ली प्रवास के अनुभव बताएं?

यह अविस्मरणीय है। यहां आने के बाद ही असली दुनिया किसे कहते हैं और कैसे जीना चाहिए, यह जाना। नाटक में भाग लेने, किताबें पढऩे, बड़े-बड़े साहित्यकारों से मिलने का अवसर मिला। दिल्ली ने पद्मा सचदेव, माला हाशमी (सफदर हाशमी की पत्नी) आदि से मिलाया। यहां बहुत अच्छे और प्यारे दोस्त (गीताश्री, अरविंद गौड़, नीनाजी, वी. एन. राय, कुमकुम जी, उदय प्रकाश, किरन शाहीन, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका दी) बने। चित्रा मुद्गल, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग आदि कितने नाम लूं... दिल्ली ही मेरा असली घर लगता है। यह शहर तो मेरी रग-रग में बसा है।

सफर के दौरान किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

बिल्कुल आग पर चलने के समान। मैं काम मांगने के लिए जाती तो लोग द्विअर्थी बातें करते। अपने आपको एक अलग पहचान देने के लिए मैंने साड़ी और बड़ी सी बिंदी लगाकर लोगों से मिलना शुरू किया। लोग कहते अपना मेकओवर करो। बहन जी टाइप लगती हो। मैंने कहा मैं इसी में अपनी पहचान बनाऊंगी। आज मुझे लोग स्वीकार कर चुके हैं।

चुनौतियों से मुकाबला किस तरह किया?

कभी काम को लेकर इतनी लालायित नहीं हुई कि कोई भी प्रस्ताव स्वीकार कर लूं। काम अपने दम पर लूंगी। यह मन में ठान लिया था। जो लोग गलत लगे, उनसे मिलना या बात करना ही छोड़ दिया। जब अभिनय का काम नहीं मिला तो दूसरा ऑप्शन भी ढूंढ़ा। एक्टिंग क्लास ली, लेख लिखे, काउंसलर भी बनी।

क्या पिता आपके प्रेरणास्रोत हैं?

बिल्कुल, वह एक बात हमेशा कहते थे कि क्रांति सब कुछ कर सकती है। जब भी टूटती हूं, तब उनका यह वाक्य याद आता है। जिस उम्र में पिता अपनी बेटियों को गुडिय़ा लाकर देते हैं उस उम्र में उन्होंने मुझे राहुल सांकृत्यायन का 'वोल्गा से गंगा तक' और 'भागो नहीं दुनिया को बदल डालो' किताब दी। उसके बाद आचार्य चतुरसेन का 'वैशाली की नगरवधू' और बहुत सी अन्य किताबें दीं।

पति के साथ रिश्ता नाकामयाब क्यों हुआ?

आलोक से मेरा क्या रिश्ता है लोग नहीं समझ पाएंगे। जब किसी इंसान को आप बिना मिले और देखे प्यार करने लगते हैं, उसका प्रभाव ही कुछ और होता है। उनकी कविता पढ़कर उनसे बिना मिले ही प्रेम हो गया था। अगर हम शादी नहीं करते तो शायद बहुत अच्छे प्रेमी-प्रेमिका होते। उन्होंने अनजाने ही रिश्तों को समझने का नया नजरिया दिया।

टीवी, फिल्मों, नाटक तीनों विधाओं की एक्टिंग में कितना अंतर पाती हैं?

तीनों विधाओं में इमोशन और एक्सप्रेशन का काम है। मंच पर टेक्निक थोड़ी अलग होती है। मैं सभी विधाओं में सहज महसूस करती हूं। बस स्क्रिप्ट अच्छी होनी चाहिए।

व्यस्त क्षणों में रुचि के काम के लिए समय किस तरह निकालती हैं?

मैं हमेशा कुछ न कुछ करते रहना पसंद करती हूं। खाली बैठना बिल्कुल पसंद नहीं है। गाना सुनना, पढऩा, घर का बढिय़ा खाना, खासकर मां के हाथ का बना खाना बेहद पसंद है।

खुद को परिभाषित करें।

मैं पागल हूं। मैं मानती हूं कि बिना जूनून और रोमांटिसिज्म के जिंदगी नहीं जी जा सकती। मुझे तो इनके बिना जिंदगी बहुत बोरिंग लगती है।

स्मिता


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