अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए खुद चल कर बाहर आते हैं भगवान
भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम एवं बहन सुभद्रा तथा आयुध सुदर्शन के साथ चतुर्धा मूर्ति के रूप में विराजमान हैं।
जागरण संवाददाता, भुवनेश्वर। श्रीक्षेत्र धाम पुरी की रथयात्रा सदियों से समूचे विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। आज भले ही विश्व के कोने कोने में रथयात्रा का आयोजन हो रहा है। मगर श्रीक्षेत्र धाम पुरी में आकर रथयात्रा देखने का लोभ भक्त संभाल नहीं पाते। तभी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं का जमावड़ा पुरी में रथयात्रा के दिन होता है। जाति, धर्म, मत, संप्रदाय के बंधन से ऊपर उठ कर भक्त अपने भगवान की एक झलक भर पाने के लिए पुरी दौड़े चले आते हैं।
पतितपावन के नाम से प्रसिद्ध महाप्रभु जगन्नाथ भी भक्तों को निराश नहीं करते हैं और अपने रत्न सिंहासन से खुद उतरकर जनता जनार्दन के बीच पहुंच जाते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीय से आरंभ होकर द्वादशी तिथि को निलाद्री बिजय तक चलने वाला यह पर्व केवल ओडिशा ही नहीं बल्कि देश विदेश में भी श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है।
चतुर्धा मूर्ति के रूप में विराजमान हैं प्रभु :
हिन्दू धर्म के चार प्रमुख धामों में एक इस धाम में भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम एवं बहन सुभद्रा तथा आयुध सुदर्शन के साथ चतुर्धा मूर्ति के रूप में विराजमान हैं। यह धाम जगदीश पुरी, पुरुषोत्तम धाम, श्रीक्षेत्र धाम, शंख क्षेत्र जैसे कई नामों से जाना जाता है। यहां भगवान दारू विग्रह के रूप में विराजमान हैं और भगवान की दैनिक पूजा में मानवीय आचार व्यवहार इसे अनन्य बनाता है। यहां पर भगवान को भात-दाल का प्रसाद लगता है। जिसे महाप्रसाद कहा जाता है।
मंदिर के अंदर बने आनन्द बाजार में बैठकर महाप्रसाद का सेवन करने वाला भक्त खुद को धन्य मानता है। इस महाप्रसाद की एक और विशेषता है कि इसके सेवन में किसी तरह की छुआ छूत या जूठन भावना नहीं है। मंदिर आने वाल हजारों भक्त हर दिन महाप्रसाद का सेवन करते हैं। इसके लिए मंदिर के अंदर बनी रसोई में हर दिन तकरीबन 10 हजार लोगों के लिए प्रसाद बनता है। पुरी के मंदिर की रसोई को संसार की अन्चतम सबसे बड़ी रसोई माना गया है।
इस चतुर्धा मूर्ति की बारह महीनों में तेरह यात्रएं आयोजित होने का रिवाज है। लेकिन महाप्रभु की रथयात्र समूचे विश्व में प्रसिद्ध है। यह रथयात्र हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया तिथि में आयोजित होती है। इस रथयात्र में भगवान स्वयं भक्तों से मिलने मंदिर से बाहर आते हैं और इसका उद्देश्य पतित जनों का उद्धार करना है।