भारी पड़ा गडकरी का सर्वे
विकास धूलिया, देहरादून
अंतत: भाजपा ने मिशन 2012 की राह पर अग्रसर होते हुए चुनावी समर के 48 योद्धाओं को मैदान में उतार दिया। टिकट बंटवारे से साफ हो गया कि इसमें पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी द्वारा कई चरणों में कराए गए सर्वेक्षणों के नतीजों की अहम भूमिका रही। हालांकि नए परिसीमन से उपजी सियासी तस्वीर में फिट न होना भी कई सिटिंग विधायकों को मायूस कर गया। कुल मिलाकर अब तक नौ सिटिंग विधायकों का पत्ता कट चुका है। दल के आंतरिक शक्ति संतुलन की बात करें तो मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी और चुनाव अभियान समिति के संयोजक भगत सिंह कोश्यारी का पलड़ा भारी रहा, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री डा. निशंक हल्के नजर आए।
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर सत्ता में वापसी की कोशिशों में जुटी भाजपा पिछले काफी अरसे से प्रत्याशी चयन के लिए सर्वे कराती रही थी। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के स्तर पर कराए गए इन सर्वे का असर प्रत्याशियों की सूची देखकर साफ महसूस हो रहा है। खासकर जिस तरह नौ सिटिंग विधायकों के टिकट साफ हुए, उसमें इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। मसलन, टिहरी में धनोल्टी के विधायक खजानदास, चमोली में कर्णप्रयाग के विधायक अनिल नौटियाल, चमोली की पिंडर सीट के जीएल शाह और चंपावत से पूर्व मंत्री बीना महराना।
हालांकि इनमें से कैबिनेट मंत्री खजानदास को धनोल्टी सीट के सुरक्षित से सामान्य होने का भी खामियाजा उठाना पड़ा। इसी तरह देहरादून में सहसपुर के विधायक राजकुमार को भी इसी वजह से टिकट से वंचित होना पड़ा, हालांकि वह इस बार उत्तरकाशी की पुरोला सीट से दावेदारी कर रहे थे। कोटद्वार के विधायक शैलेंद्र रावत को मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के परंपरागत चुनाव क्षेत्र धुमाकोट का वजूद खत्म होने के कारण कोटद्वार सीट पसंद आने से मन मसोसना पड़ा। कपकोट के विधायक शेर सिंह गड़िया को इसलिए मैदान छोड़ना पड़ा क्योंकि पार्टी ने यहां उन पर बलवंत सिंह भौर्याल को तरजीह दी, जिनकी कांडा सीट का अस्तित्व खत्म हो गया है। गंगोलीहाट सीट से जोगाराम टम्टा की बजाए पार्टी ने गीता ठाकुर को आजमाना बेहतर समझा।
आज की सूची का अगर पार्टी के अंदरूनी शक्ति संतुलन के पैमाने पर आंकलन करें तो साफ है कि मुख्यमंत्री खंडूड़ी व चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कोश्यारी की पूरी सुनवाई हुई जबकि पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के हिस्से इस लिहाज से मायूसी आई कि उनके नजदीकी माने जाने वाले कई सिटिंग विधायकों तक को टिकट से वंचित रहना पड़ा, चाहे इसके अलग-अलग ही कारण क्यों न हो। एक और उल्लेखनीय तथ्य यह रहा कि आरक्षित सीटों पर पार्टी ने खासी मशक्कत की, नतीजतन अधिकांश पर नए चेहरों को मौका मिल रहा है।
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