संसद: एक विहंगम दृष्टि
गत 60 वर्षो पर विहंगम दृष्टि डाले तो देखेगे कि पहली लोकसभा से पंद्रहवी लोकसभा तक आते-आते संसद के चरित्र, चेहरे और चलन मे भारी बदलाव आए है। नए स्वरूप और समस्याएं, नई पहचान और नए आयाम सामने आए है।
गत 60 वर्षो पर विहंगम दृष्टि डालें तो देखेंगे कि पहली लोकसभा से पंद्रहवीं लोकसभा तक आते-आते संसद के चरित्र, चेहरे और चलन में भारी बदलाव आए हैं। नए स्वरूप और समस्याएं, नई पहचान और नए आयाम सामने आए हैं।
भारतीय संसद के संबंध में इधर जो बात सबसे अधिक कही जाती है और जिससे समाचारपत्रों की सुर्खियां बनती हैं, वह है सदन में सदस्यों का आचरण। एक-दूसरे के ऊपर चिल्लाना, घूंसे दिखाना, कागज- छीनना, फाड़ना और कागज के प्रक्षेपास्त्र बनाकर मंत्रियों पर फेंकना, यदा-कदा हिंसा पर उतर आना, कितने ही अन्य प्रकार की अव्यवस्था, नारेबाजी, शोरगुल, हंगामा, अनुशासनहीनता, पीठासीन अधिकारी की अवज्ञा, अध्यक्ष के आसन के पास आकर धरना और कार्यवाही को न चलने देना। इसमें कोई छिपी बात नहीं है कि इधर कुछ वर्षो में राजनीतिज्ञों और सांसदों की आस्था और सम्मान के प्रति जनता की सोच बदली है। सदनों की कार्यवाही को दूरदर्शन पर देखकर आम नागरिक की प्रतिक्रिया कुछ सुखद नहीं होती।
संसद जिसे विशेषकर विधि बनाने वाले संस्था समझा जाता था, उसके लिए विधि निर्माण कार्य गौण हो गया। जहां प्रथम लोकसभा में 48.74 प्रतिशत समय विधि निर्माण पर लगा था, वहीं अब औसतन 13 प्रतिशत से कम समय इस काम पर लगने लगा।
सदस्यों की पृष्ठभूमि और पहचान में भारी परिवर्तन हुए। 1947-1962 के बीच संसद काफी कुछ अभिजात, समृद्ध शहरी परिवारों से आए अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े-पनपे लोगों से भरी थी। वकीलों-बैरिस्टरों का व्यावसायिक समूह सबसे बड़ा था। संभवत: यही कुछ कारण थे कि संसद के दोनों सदनों में वाद-विवाद का स्तर बहुत ऊंचा रहता था।
गत 60 वर्षो में हमारी संसद में कितने ही ऐसे विशिष्ट और गुणी पुरुष और महिला सांसद हुए हैं, जो संसदीय वाद-विवाद में पटुता, प्रक्रिया संबंधी नियमों पर अधिकार, वाक-कौशल, संसदीय संस्कृति और परंपराओं के प्रति निष्ठा तथा व्यक्तिगत शालीनता के लिए जाने जाते रहे। हम उन पर गर्व कर सकते थे। विश्व की किसी भी संसद के वे गौरव होते। जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू धीरे-धीरे दबे पांवों से सदन में प्रवेश करते थे और बड़े विनम्र भाव और बड़ी गरिमा के साथ अध्यक्ष सहित पूरे सदन का सिर झुकाकर अभिवादन करते थे तो दृश्य दर्शनीय होता था। वह घंटों संसद में बिताते और संसद की कार्यवाही को ध्यानपूर्वक सुनते थे। कभी-कभी अपनी कटु आलोचना और प्रहारों को भी वह मुस्कुराकर सुनते रहते थे। नेहरू जी संसदीय गरिमा और गौरव स्थापित करने वालों में अग्रणी माने जाएंगे। जब डॉ अंबेडकर, डॉ लोहिया, आचार्य कृपलानी, कृष्ण मेनन जैसी दिग्गज हस्तियों के सदन में बोलने की बात फैलती तो मिनटों में सदन और उसकी दीर्घाएं लबालब भर जाती थीं। कायथ और मधु लिमये प्रक्रिया के मास्टर थे तो कुंजरू और पटनायक जिन विषयों पर बोलते, उनके विशेषज्ञ थे। गोविंद बल्लभ पंत की अपनी अलग ही शैली थी। वह पहले प्रतिद्वंद्वी की प्रशंसा करते, उनकी कही बातों में अच्छाइयों की ओर संकेत करते और फिर इतनी कोमलता और दक्षता के साथ उनके एक-एक तर्क को काटते कि लोग हतप्रभ रह जाते। वाद-विवाद में पंत से हारने में भी सुख मिलता था। पीलू मोदी, ढिल्लो, कृपलानी, डॉ लोहिया और फिरोज गांधी जैसे कई लोगों को उनके अन्य संसदीय गुणों के अतिरिक्त हास्य विनोद की प्रतिभा के लिए संसद के इतिहास में सदैव याद किया जाएगा।
विशेषकर 1967 के बाद संसद के सदस्यों की पहचान में बहुत तेज बदलाव देखे गए। यद्यपि शिक्षा की दृष्टि से और जहां तक डिग्री आदि का संबंध है, पढ़े-लिखों की, उच्च शिक्षा प्राप्त सदस्यों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई, इसके बावजूद वाद-विवाद का स्तर और संसदीय कार्यो में सदस्यों की रुचि का स्तर गिरा। कतिपय सदस्यों के आचरण पर भी बारंबार प्रश्न चिह्न लगे। संस्थाओं और अपने प्रतिनिधियों से जनता का विश्वास उठा।
सदस्यों में जो सबसे बड़े व्यावसायिक समूह उभरे, वे थे कृषकों के और राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के। संसदीय लोकतंत्र के लिए एक सैद्धांतिक द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था अभी तक नहीं उभर सकी है। बड़ी रोचक बात है कि प्रारंभ के दशकों में जब विपक्ष संख्या में बहुत कमजोर था तब वह बहुत अधिक सक्षम और प्रभावी सिद्ध हुआ क्योंकि अब दल-बदल केवल व्यक्तियों का न होकर समूहों में होने लगा।
जो दशक बीते हैं उनमें संसद के सदनों के चरित्र, गठन, वाद-विवाद और कार्यकरण में जो परिवर्तन हुए उनसे सारी संसदीय संस्कृति ही बदल गई। पहले अंतरराष्ट्रीय और फिर राष्ट्रीय विषयों पर बहस को वरीयता मिलती थी। बाद में क्षेत्रीय और स्थानीय मामले ही अधिक महत्वपूर्ण हो गए, भले ही वह राज्यों की विधानपालिकाओं अथवा नगरपालिकाओं के लिए ही अधिक उचित क्यों न रहे हों। पहले क्षेत्रीय और स्थानीय समस्याओं को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा समझा जाता था, अब राष्ट्रीय समस्याओं को भी क्षेत्रीय, जातिगत, भाषाई, सांप्रदायिक तथा अन्य ऐसे ही संकुचित आधारों पर जांचा-सुलटाया जाने लगा। यह राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है।
जिसे त्रिशंकु लोकसभा की संज्ञा दी जाने लगी है उससे संसदीय संस्कृति और देश की राजनीति को और भी क्षेत्रीय और संकुचित बना दिया। प्रधानमंत्री कौन हो, राष्ट्रपति कौन हो, किस प्रदेश का, किस संप्रदाय का, किस जाति का हो, यह सब निर्णय करते हैं छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के नेता और राज्यों के मुख्यमंत्री।
संसदीय लोकतंत्र एक सभ्य और सुसंस्कृत प्रणाली है। उसकी अपनी एक संस्कृति है, जो निर्णय करती है कि क्या कृत्य संसदीय अथवा असंसदीय है।
भारत के लोग आज इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि 60 वर्षो तक संसदीय लोकतंत्र हमारे यहां सफलतापूर्वक चलता रहा। किंतु साथ ही हमारे जनप्रतिनिधियों के प्रतिनिधि होने पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है क्योंकि उनमें से अधिकांश कुल डाले मतों के भी अल्पमत से जीतकर आते हैं और उनके विरुद्ध पड़े मतों की संख्या उनके पक्ष में पड़े मतों से अधिक होती है।
स्वाधीनता और संसद दोनों ही अत्यंत कोमल पौधे हैं। यदि इन्हें ध्यानपूर्वक सींचा-संजोया न जाए तो ये शीघ्र ही मुरझा जाते हैं। यदि हमें संसद और संसदीय लोकतंत्र को मजबूत बनाना है, तो सबसे पहले ऐसा कुछ करना होगा जिससे संसद और सांसदों की पारंपरिक गरिमा पुनस्र्थापित हो और फिर से उन्हें जनमत में आदर और स्नेह का स्थान मिल सके।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज संसदीय जीवन को भी एक लाभकारी व्यवसाय के रूप में देखा जाता है। कहते हैं रोमन साम्राज्य का अभ्युदय हुआ और वह चरम शिखर पर पहुंचा जब उसके लोग अपना सब कुछ रोम को देना चाहते थे और रोमन साम्राज्य का पतन हो गया जैसे ही उन्होंने समाज से ज्यादा से ज्यादा लेना शुरू कर दिया। आशा करना चाहिए कि आने वाले वर्षो में संसद को एक नई दिशा मिलेगी, संसदीय संस्थाओं का गौरव और सम्मान लौटेगा, राजनीति सांप्रदायिकता, अपराधीकरण, भ्रष्टाचार जैसे दानवों से मुक्ति पाएगी तथा हमारा लोकतंत्र और गणतंत्र अधिक प्रशस्त होंगे।
-सुभाष कश्यप [पूर्व महासचिव, लोकसभा]
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