एक गांव जहां दीपावली पर नहीं जलते दीये
रोशनी का त्योहार यानी दीपावली, इसका इंतजार हर किसी को रहता है। हर और पटाखों की गूंज ढेर सारी मिठाई। दीयों और रोशनी से जगमग घरों में हर और खुशियां मनाई जाती हैं। इधर कांगड़ा जिला की तहसील पालमपुर का एक गांव ऐसा भी है जहां दीवाली का दिन भी
शिवालिक नरयाल, भवारना (पालमपुर)
रोशनी का त्योहार यानी दीपावली, इसका इंतजार हर किसी को रहता है। हर और पटाखों की गूंज ढेर सारी मिठाई। दीयों और रोशनी से जगमग घरों में हर और खुशियां मनाई जाती हैं। इधर कांगड़ा जिला की तहसील पालमपुर का एक गांव ऐसा भी है जहां दीवाली का दिन भी आम दिनों की तरह ही होता है। यहां न तो किसी के घर में दीये जलते हैं और न ही पटाखे फोड़े जाते हैं। मिठाई भी नहीं बांटी जाती है।
सुलह विधानसभा क्षेत्र की सिहोटु पंचायत के गांव अटियाला दाई में अंगारिया जाति के लगभग 50 परिवार रहते हैं। ये लोग एक बुजुर्ग के वचन का सम्मान करते हुए कई साल से दीवाली के दिन किसी उत्सव का आयोजन नहीं करते।
गांव के लोगों व इन लोगों का कहना है कि वर्षों पूर्व अंगारिया समुदाय का एक बुजुर्ग कुष्ठ रोग की चपेट में आ गया था। उस समय चिकित्सा के अभाव के चलते कई लोग इस रोग के घेरे में आ जाते थे। रोग की जकड़ में आए समुदाय के एक बुजुर्ग ने अपनी भावी पीढ़ी को बचाने के लिए एक प्रण लेते हुए ऐसा कदम उठाया, जिसका जिक्र इतिहास में भी कम ही मिलता है।
बताते हैं कि दीवाली वाले दिन एक गड्डा खुदवाकर यह बुजुर्ग हाथ में दीया लेकर उसमें बैठ गया। उसने बाकी लोगों से गड्ढे में मिट्टी डालने को कहा। जब मिट्टी भरी जाने लगी और जिंदा दफन होते बुजुर्ग ने कहा कि वह अपने कुल से इस बीमारी को मिटाने के लिए ऐसा कर रहा है। इसलिए उसने समुदाय की भावी पीढ़ी को भविष्य में कभी भी दीवाली मनाने के लिए मना किया और कहा कि यदि ऐसा न किया तो इस कुल के लोग फिर से इस चपेट में आ जाएंगे। तभी से इस समुदाय के लोग दीवाली का त्योहार नहीं मनाते हैं और बुजुर्ग को दिए गए वचन की आन रखे हुए हैं।
अन्य जगह पर बसने पर भी निभा रहे वचन
अटियाला दाई गांव के अंगारिया समुदाय के बुजुर्ग विशंभर अंगारिया, प्रकाश अंगारिया, सतपाल अंगारिया व पूर्व प्रधान किशोरी लाल बताते हैं कि अंगारिया जाति के लोग सबसे पहले धीरा नोरा के पास के गांव कोटा में रहते थे, जहां से उठकर इस समुदाय के कुछ लोग अटियाला दाई, मंडप, वोधल सहित धर्मशाला में बस गए हैं लेकिन यह सब अपने अपने घरों में इस त्योहार को नहीं मनाते हैं। उन्होंने बताया कि कोटा गांव में अभी भी अंगारिया जाति के 25 से 30 परिवार रहते हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि उन्हें इतिहास नहीं पता कि कब यह हुआ लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी यह प्रथा कायम रखने में यह समुदाय वचनवद्ध है।