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पाई- पाई को मोहताज थी महिलाएं, एक अाइडिया से बदल गई है जिंदगी

काले साबुन की मांग अब धनबाद के अलावा जमशेदपुर और दूसरे जिलों तक भी जा पहुंची हैं। टाटा स्टील ने बदली धनबाद के पेटिया गांव की महिलाओं की जिंदगी

By Srishti VermaEdited By: Published: Tue, 25 Jul 2017 09:13 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jul 2017 09:38 AM (IST)
पाई- पाई को मोहताज थी महिलाएं, एक अाइडिया से बदल गई है जिंदगी
पाई- पाई को मोहताज थी महिलाएं, एक अाइडिया से बदल गई है जिंदगी

धनबाद (दिनेश कुमार)। दस साल पहले तक खुद को चूल्हा- चौके तक सीमित रखने वाली धनबाद प्रखंड के पेटिया बस्ती की ये आम घरेलू महिलाएं थीं। टाटा स्टील के मदद भरे हाथ ने इन दर्जन भर महिलाओं को आज खास बना दिया है। उनकी जिंदगी संवर उठी है। टाटा स्टील के सहयोग ने इनमें फौलाद सा जज्बा पैदा कर दिया है। अब ये आत्मनिर्भर हैं। परिवार के लिए बड़ा संबल हैं। बेटे-बेटियों को अच्छी तालीम दिला रही हैं। पाई-पाई के संकट के बीच जीने की मजबूरी छूमंतर हो चुकी है।

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टाटा स्टील के सहयोग से यहां की महिलाओं का समूह एक ऐसे खास काले साबुन का निर्माण करने लगा है जिसकी अब दूर-दूर तक मांग हो गई है। धनबाद के अलावा इस साबुन की मांग अब लौह नगरी जमशेदपुर और देश के दूसरे जिलों तक भी जा पहुंची है। पहले समूह की महिलाएं छोटे स्तर पर इसका उत्पादन करती थीं। आसपास के गांवों तक ही इसकी सप्लाई थी, लेकिन अब इसकी मांग बढ़ी है तो उत्पादन भी बढ़ गया है।

बदलाव की कहानी
2006 की बात है। एक दिन टाटा स्टील कंपनी की सामुदायिक कल्याण के तहत काम करने वाली संस्था टाटा स्टील रूरल डेवलपमेंट सोसाइटी (टीएसआरडीएस) की महिला सशक्तीकरण अधिकारी दिव्याना लकड़ा पेटिया गांव गई थीं। उन्होंने महिलाओं से बात की तो सभी ने अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति बयां की। दिव्याना ने उनको समझाया कि आपको आगे आना होगा। काम करना होगा। आवश्यक सहयोग हम लोग करेंगे। इसके बाद महिलाएं तैयार हुईं। करीब एक दर्जन महिलाओं को जोड़कर मां दुर्गा स्वयं सहायता समूह का गठन किया गया
गया। पेशी देवी इसकी अध्यक्ष और बबीता देवी सचिव बनीं। टीएसआरडीएस द्वारा महिलाओं को सात दिन तक काला साबुन बनाने का प्रशिक्षण गांव में ही दिया गया। इसके बाद महिलाओं ने स्वयं इसका उत्पादन शुरू किया। गांव में ही एक सरकारी भवन है जिसके परिसर में महिलाएं साबुन का उत्पादन करने लगी

दो तरह के साबुन
समूह दो विशेष तरह के साबुन तैयार कर रहा है। काला साबुन कपड़ा चकाचक साफ करता है तो पीला साबुन नहाने और बर्तन धोने के भी काम आता है। प्रति पीस दस रुपये में इसे बाजार में बेचा जाता है।

आ रही संपन्नता
समूह की महिलाएं मुनाफे की राशि का आपस में बंटवारा करती हैं। उसका कुछ सामूहिक हिस्सा बैंक में जमा किया जाता है। बैंक में अब अच्छी खासी रकम जमा हो गई है। किसी बड़े काम के लिए जरूरी हुआ तो बैंक से कर्ज लिया जाता है फिर धीरे- धीरे उसे चुकता किया जाता है। महिलाओं का यह प्रयास रंग ला रहा है। फूस की झोपड़ी की जगह उनके पास रहने लायक घर हो गए हैं। बेटे-बेटियों को शिक्षित कर उनकी धूमधाम से शादी कर रही हैं।

अब हम लोग साबुन का निर्माण कर महीने में परिवार चलाने लायक राशि कमा लेते हैं। साबुन के कारोबार ने हमारे जीवन में खुशहाली भर दी है।- पेशी देवी, अध्यक्ष, मां दुर्गा स्वयं सहायता समूह

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