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आपातकाल के 41 साल: जब इंदिरा के लिए बदला गया भारत का संविधान

आपातकाल के दौरान संविधान में इस हद तक बदलाव किए गए कि इसे अंग्रेजी में 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया' की जगह 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा' कहा जाने लगा था।

By Atul GuptaEdited By: Published: Sun, 26 Jun 2016 10:29 AM (IST)Updated: Sun, 26 Jun 2016 11:31 AM (IST)
आपातकाल के 41 साल: जब इंदिरा के लिए बदला गया भारत का संविधान

नई दिल्ली,(अतुल गुप्ता) आजाद भारत के इतिहास में पहली बार लगे आपातकाल के 41 साल बीत चुके हैं ना इंदिरा गांधी रहीं और ना ही जयप्रकाश नारायण लेकिन इतने वर्षों बाद भी आपातकाल के समय को आज भी याद किया जाता है 25 जून 1975 देश में पहली बार इमरजेंसी लगी और इस इस दौरान देश में महत्वपूर्ण घटनाएं घटी लेकिन, उनमें से सबसे महत्वपूर्ण रहा संविधान में बदलाव। वैसे संविधान में हुए कुल संशोधनों का औसत निकाला जाए तो उस लिहाज से हर साल दो संशोधन होते हैं। कानून के जानकार मानते हैं कि ये संशोधन संविधान को समय के साथ-साथ मजबूत करते हैं लेकिन आपातकाल के दौरान हुए संशोधनों के बारे में कह सकता हें कि इस दौरान हुए संशोधन पूरी तरह निजी महत्वकांक्षाओं से प्रेरित थे।

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आपातकाल और संविधनान में बदलाव का दौर
आपातकाल के दौरान संविधान में इस हद तक बदलाव किए गए कि इसे अंग्रेजी में 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया' की जगह 'कंस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा' कहा जाने लगा था। इस दौर में संविधान में क्या परिवर्तन हुए, इन परिवर्तनों के क्या परिणाम हुए और कैसे संविधान को उसके मूल रूप में वापस लाया गया? इन सवालों के जवाब जानने की शुरुआत उन परिस्थितियों से करते हैं जिनके कारण संविधान से खिलवाड़ का दौर शुरू हुआ।
भारतीय इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब 19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते हुए अदालत में गवाही देने आना पड़ा। यह मामला उनके खिलाफ दर्ज की गई चुनाव याचिका की सुनवाई का था। मार्च 1975 का यही वह समय भी था जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में दिल्ली की सड़कों पर लगभग साढ़े सात लाख लोगों की भीड़ इंदिरा गांधी के खिलाफ नारे लगा रही थी। आजादी के बाद यह पहला मौका था जब किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इतनी बड़ी रैली निकाली गई थी और 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' और 'जनता का दिल बोल रहा है, इंदिरा का आसन डोल रहा है' जैसे नारों से सारा देश गूंज रहा था।

इंदिरा गांधी ने आपातकाल को बताया था समय की जरूरत

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल को समय की जरूरत बताते हुए उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन किये. 40वें और 41वें संशोधन के जरिये संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के बाद 42वां संशोधन पास किया गया।

जब इंदिरा गांधी को पीएम बनाए रखने के लिए किया गया संविधान में संशोधन

आपातकाल में हुए संशोधनों में सबसे पहला था भारतीय संविधान का 38वां संशोधन जोकि 22 जुलाई 1975 को पास हुआ। इस संशोधन के मुताबिक न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा का अधिकार छीन लिया गया। इसके लगभग दो महीने बाद ही इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिहाज से संविधान का 39वां संशोधन लाया गया। दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया थआ लेकिन इस संशोधन ने कोर्ट से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार ही छीन लिया। इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ संसद द्वारा गठित की गई समिति ही कर सकती थी।

मौलिक अधिकारों को कमजोर करने वाला संशोधन

आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक था मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना। इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था। इसके साथ ही इस संशोधन ने न्यायपालिका को पूरी तरह से कमजोर कर दिया था वहीँ विधायिका को अपार शक्तियां दे दी गई थी। अब केंद्र सरकार को यह भी शक्ति थी कि वह किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी दूसकी तरफ राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया। इस संशोधन के बाद विधायिका द्वारा किए गए 'संविधान-संशोधनों' को किसी भी आधार पर अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को दे दिया गया और संसद का कार्यकाल भी पांच वर्ष से बढाकर छह वर्ष कर दिया गया।

आपातकाल के दौरान हुए कुछ अच्छे संशोधन जो आज भी संविधान का हिस्सा हैं।

आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान में कुछ संशोधन ऐसे भी हुए जिन्हें सकारात्मक नजरिये से देखा जा सकता है। संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी।

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