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फिल्‍म रिव्‍यू: 'वीरप्‍पन' लेकर लौटे हैं रामू (3 स्‍टार)

‘वीरप्पन’ में लेखक-निर्देशक ने एक सामान्य लड़के के अपराधी बनने की कहानी संक्षेप में रखी है। खून और पैसों का स्वाद लग जाने के बाद वीरप्पन की आपराधिक गतिविधियां लगातार बढ़ती गईं।

By Tilak RajEdited By: Published: Fri, 27 May 2016 11:24 AM (IST)Updated: Fri, 27 May 2016 12:48 PM (IST)
फिल्‍म रिव्‍यू: 'वीरप्‍पन' लेकर लौटे हैं रामू (3 स्‍टार)

-अजय बह्मात्मज

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प्रमुख कलाकार- संदीप भारद्वाज, लीजा रे, उषा जाधव।

निर्देशक- राम गोपाल वर्मा

संगीत निर्देशक- जीत गांगुली

स्टार- 3 स्टार

एक अंतराल के बाद रामगोपाल वर्मा हिंदी फिल्मों में लौटे हैं। उन्होंने अपनी ही कन्नड़ फिल्म ‘किलिंग वीरप्पन’ को थोड़े फेरबदल के साथ हिंदी में प्रस्तुत किया है। रामगोपाल वर्मा की फिल्मोग्राफी पर गौर करें तो अपराधियों और अपराध जगत पर उन्होंने अनेक फिल्में निर्देशित की हैं। अंडरवर्ल्ड और क्रिमिनल किरदारों पर फिल्में बनाते समय जब रामगोपाल वर्मा अपराधियों के मानस को टटोलते हैं तो अच्छी और रोचक कहानी कह जाते हैं। और जब वे अपराधियों के कुक्त्यों और क्रिया-कलापों में रमते हैं तो उनकी फिल्में साधारण रह जाती हैं। ‘वीरप्पन’ इन दोनों के बीच अटकी है।

‘वीरप्पन’ कर्नाटक और तमिलनाडु के सीमावर्ती जंगलों में उत्पात मचा रखा था। हत्या, लूट, अपहरण, हाथीदांत और चंदन की तस्करी आदि से उसने आतंक फैला रखा था। कर्नाटक और तमिलनाडु के एकजुट अभियान के पहले वह चकमा देकर दूसरे राज्य में प्रवेश कर जाता था। दोनों राज्यों के संयुक्ति अभियान के बाद ही उसकी गतिविधियों पर अंकुश लग सका। आखिरकार ऑपरेशन कोकुन के तहत 2004 में उसे मारा जा सका। रामगोपाल वर्मा ने कन्नड़ फिल्म में हुई भूलों को नहीं दोहराया है। हिंदी दर्शकों के लिए वे थोड़े अलग कलेवर में वीरप्पन को पेश करते हैं। उन्होंने आईपीएस ऑफिसर कन्नन को विस्तार दिया है।

फिल्म के अंत में एक सवाल भी आता है कि वीरप्पन जैसे राक्षस को समाप्त करने के लिए कन्नन को महाराक्षस बनना पड़ा। देखना होगा कि दोनों में कौन अधिक नृशंस है। कानून की आड़ में हत्या करना किस कदर जायज है? रामगोपाल वर्मा की देखरेख में एनकाउंटर पर भी अनेक फिल्में बनी हैं। हालांकि राम गोपाल वर्मा कभी अपराधियों के समर्थन में नहीं आते, लेकिन वे सभ्य समाज के कानून और रवैए पर सवाल जरूर उठाते हैं।

‘वीरप्पन’ में लेखक-निर्देशक ने एक सामान्य लड़के के अपराधी बनने की कहानी संक्षेप में रखी है। खून और पैसों का स्वाद लग जाने के बाद वीरप्पन की आपराधिक गतिविधियां लगातार बढ़ती गईं। उसने कर्नाटक और तमिलनाडु दोनों राज्यों की पुलिस के नाक में दम कर रखा था। यहां तक कि उसने कन्नड़ फिल्मों के सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकुमार तक का अपहरण किया। राम गोपाल वर्मा ने उसकी आपराधिक गतिविधियों पर नजर डाली है। पुलिस और सरकारों के लिए चुनौती बने वीरप्पन का खात्मा तो होना ही था, लेकिन अपने असलाह और ताकत के बावजूद पुलिस का उस तक पहुंच पाना संभव नहीं होता था।

रामगोपाल वर्मा ने उसकी पत्नी मुथुलक्ष्मी, एक पुलिस ऑफिसर की पत्नी श्रेया और आईपीएस अधिकारी कन्नन के किरदार जोड़े हैं। श्रेया के पति की वीरप्पन ने जघन्य हत्यार की थी, इसलिए वह पुलिस की खुफियागिरी के लिए राजी हो गई है। वह मुथुलक्ष्मी को भरोसे में लेती है और वीरप्पन तक पहुंचने का सुराग हासिल करती है। लेखक-निर्देशक की मर्जी से श्रेया कहीं भी पहुंच सकती है। चौकसी और खुफियागिरी में लगा पुलिस महकमे को उस लड़के पर कोई शक नहीं होता जो मुथुलक्ष्मी और वीरप्पन के रिकार्डेड टेप एक-दूसरे तक पहुंचाता है...हा हा हा।

‘वीरप्पन’ में कन्नन का किरदार निभा रहे सचिन जोशी और श्रेया की भूमिका में लिजा रे निराश करते हैं। सचिन जोशी किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करते, जबकि उन्हें जबरदस्त किरदार दिया गया है। लिजा रे का किरदार सही ढंग से परिभाषित नहीं है। मुथुलक्ष्मी की भूमिका में उषा जाध प्रभावकारी हैं। उन्होंने दिए गए दृश्यों को अपनी योग्यता से सार्थक किया है। नवोदित संदीप भारद्वाज की मेहनत भी दिखती है। किसी परिचित किरदार को पर्दे पर निभा पाने की चुनौती में वे सफल रहे हैं। समस्या उनके अभिनय से अधिक लेखक के चरित्र चित्रण की है। संदीप भारद्वाज को वीरप्पन का लुक देने में मेकअप के उस्ताद विक्रम गायकवाड़ की काबिलियत झलकती है। दो-चार क्लोजअप में संदीप भारद्वाज के चेहरे पर अपराधी वीरप्पन की नृशंसता उतर आई है।

राम गोपाल वर्मा इस बार एक उम्मीद देते हैं कि वे फिर से अपना कौशल और दम-खम दिखा सकते हैं। उन्हें बैकग्राउंड स्कोर में लाउड साउंड का मोह छोड़ना चाहिए। इस फिल्म में जब गोलिया चलती हैं तो लगता है कि किसी ने चटाई बम सुलगा दिया हो।

अवधि- 127 मिनट

abrahmatmaj@mbi.jagran.com


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