पहली बार नहीं हुआ है सुप्रीम कोर्ट में विवाद, अदालत की छवि पर लगा दाग
देश की सबसे बड़ी समस्या देर से न्याय मिलना है और यही देश में कानून-व्यवस्था समेत अन्य हालात के बिगड़ने का कारण है।
नई दिल्ली (जेएनएन)। लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ न्यायपालिका के प्रति लोगों की आस्था और सम्मान का अंदाजा इसी से लगता है कि जिंदगी और मौत का फैसला करने वाले इन न्यायपालकों को मीलार्ड कहते हैं। समाज में शायद ही ऐसा कोई हो जो अंतिम आस इस संस्था से न लगाए रखता हो। कहीं भी सुनवाई न हो रही हो तो मन में एक बात गहरे पैठी रहती है कि चलो अभी न्यायपालिका की देहरी बाकी है।
यह आस्था और सम्मान न्यायपालिका ने एक दिन में नहीं कमाया है। बरसों की त्याग, तपस्या और तटस्थता ने उसे इसका हकदार बनाया है। जब भी न्यायमूर्तियों के आचरण पर सवाल खड़े हुए हैं तो जनमानस आहत हुआ है, क्योंकि उसे तो सिर्फ यह पता है कि मीलार्ड सिर्फ और सिर्फ बेदाग और निष्कलंक होते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो न्याय की मूर्ति खंडित नजर आएगी और खंडित मूर्ति की पूजा नहीं होती।
हाल में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप लगाए हैं उसने देश की शीर्ष अदालत की साख पर फिर सवाल खड़ा किया है। यह ऐतिहासिक मसला इसलिए भी लोगों को परेशान कर रहा है क्योंकि जो न्याय प्रणाली हमें यह सिखाती रही है कि विवाद को आपस में ही सुलझा लिया जाना चाहिए। अदालत तक आने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए, उसकी सुप्रीम संस्था खुद उस पर अमल नहीं कर रही है। चर्चित मामलों की सुनवाई अपनी पसंद की बेंच को देने संबंधी मुख्य न्यायाधीश पर लगे आरोपों को भी कई कानूनविद् उनका सर्वाधिकार बताकर खारिज कर रहे हैं। बहरहाल अभी एक ही पक्ष की बात ही सामने आई है, मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा अपनी गरिमा को बनाए हुए हैं। ऐसे में न्याय दिलाने वाली देश की सुप्रीम संस्था के अंतर्विरोधों और अंतद्र्वंद्व की पड़ताल आज बड़ा मुद्दा है।
साख को आघात
देश की सर्वोच्च अदालत के चार वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने मीडिया का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए जो कदम उठाया उसने न्यायपालिका की सदियों की पारदर्शी छवि को धूमिल करने का काम किया है। सुप्रीम कोर्ट भविष्य में भले ही अपने फैसलों से जनता में छवि बेहतर बना ले लेकिन, इस कदम से शीर्ष अदालत की छवि पर जो दाग लगा है, वह हमेशा बना रहेगा। न्यायमूर्तियों के कदम को किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता है, यह न सिर्फ निंदनीय है, बल्कि न्यायपालिका के लिए बुरा संकेत है। न्यायमूर्तियों के इस कदम ने हाई कोर्ट व निचली अदालत के न्यायमूर्तियों व न्यायाधीशों के लिए भी रास्ता खोल दिया कि वह भी भविष्य में इसी तरह से मीडिया के सामने आकर अपना विरोध दर्ज कर सकें।
यह पहला मौका नहीं जब सुप्रीम कोर्ट में विवाद हुआ
ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने वाले पहले और अंतिम न्यायमूर्ति हैं। इससे पहले भी ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। ऐसे में सवाल यह है अब पहली बार सवाल क्यों उठा है। संविधान के अनुच्छेद -136 में स्पष्ट कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में विधि के प्रश्न व जनसाधारण से जुड़े मुद्दे ही आते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई ईमानदारी से हो रही है तो फिर हर मुकदमा महत्वपूर्ण है। भारत का सुप्रीम कोर्ट ही है, जहां एक साथ कोर्ट नहीं बैठती है और डिविजनल बेंच की व्यवस्था की गई है।
सबसे महत्वपूर्ण बात सुप्रीम कोर्ट ने खुद तय किया है कि मास्टर ऑफ रोल कौन होगा? ज्यूडिशियल साइट को एडमिनिस्ट्रेटिव साइट चुनौती नहीं दे सकती। अगर आप इससे सहमत नहीं हैं तो फिर लार्जर बेंच में याचिका डाल सकते हैं। लार्जर बेंच ही तय कर सकती है कि क्या किया जा सकता है। यह पहला मौका नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट में विवाद हुआ है। अधिकारों को लेकर इससे पहले भी विवाद हुआ है। मास्टर ऑफ रोल चीफ जस्टिस के पास है और ये न्यायमूर्ति उस अधिकार को लेना चाहते हैं। मैं तो यह कहता हूं कि सिर्फ चार न्यायमूर्ति ही सही हों ऐसा तो नहीं है। आपको दिक्कत है तो चीफ जस्टिस से शिकायत करें, शीर्ष बेंच में याचिका डालें, लेकिन किसी की बात तो माननी पड़ेगी। ऐसा तो नहीं हो सकता है कि सभी भ्रष्ट हैं।
कोलेजियम में बैठे दोयम दर्जे के लोग
जहां तक लोकतंत्र की बात है तो अगर चीफ जस्टिस द्वारा असमर्थ, भ्रष्ट व मानसिक रूप से अस्वस्थ न्यायमूर्तियों को केस सौंपे जा रहे हैं तो निश्चित तौर पर यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो फिर किसी को भी कोई भी मुकदमा दिया जाए इससे लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि बड़े पदों पर छोटे लोग बैठ गए हैं। यही हाल कोलेजियम का है। कोलेजियम में बैठे दोयम दर्जे के लोगों से पहले दर्जे के चयन की उम्मीद नहीं की जा सकती। निश्चित तौर पर वे अपने जानने वालों, रिश्तेदारों को आगे बढ़ाने के लिए तीसरे व चौथे नंबर के व्यक्ति का चयन करेंगे। यह न्यायपालिका के लिए ठीक नहीं है। कोलेजियम की व्यवस्था गलत है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए। सब भ्रष्ट हैं और चयन करने वाले चार-पांच लोग ही ठीक है, ऐसा मानना गलत है। हमें कहीं तो भरोसा करना पड़ेगा।
कानून व्यवस्था में बदलाव की जरूरत
देश की सबसे बड़ी समस्या देर से न्याय मिलना है और यही देश में कानून-व्यवस्था समेत अन्य हालात के बिगड़ने का कारण है। देश की न्याय व्यवस्था का हाल यह है कि फांसी की सजा की अपील याचिका पर भी पांच से दस साल तक सुनवाई पूरी नहीं होती। इंसान एक बार कोर्ट के चक्कर में फंस जाए तो उसकी कई पीढ़ियां कोर्ट के चक्कर काटती रहती हैं। न्यायालय की चक्की में ईमानदार व्यक्ति पीस दिया जाता है और बदमाशों का बोलबाला रहता है। पुश्तैनी जमीन को लेकर मैंने खुद अपने भाई के खिलाफ मुकदमा किया था। तीन साल में फैसला नहीं हुआ, यह है हमारी न्याय व्यवस्था। जब एक पूर्व न्यायमूर्ति को न्याय नहीं मिल रहा तो आम आदमी की कहां तक सुनवाई होगी। न्यायपालिका की व्यवस्था चरमरा चुकी है और इसे पूरी तरह से बदलने की जरूरत है।
(विनीत त्रिपाठी से बातचीत पर आधारित)
यह अधिकारों पर कब्जे के लिए एक तरह से सास-बहू का झगड़ा लगता है, लेकिन घर की इज्जत को बचाने के लिए सास-बहू भी अपने झगड़े को घर के अंदर ही सुलझा लेती हैं, फिर ये चार वरिष्ठ न्यायमूर्ति क्यों नहीं कर सके?
जस्टिस आरएस सोढ़ी
सेवानिवृत्त
न्यायमूर्ति, दिल्ली हाई कोर्ट
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