झारखंड के 'जल पुरुष' सिमोन उरांव ने ग्रामीणों के सहयोग से बनाए 3 बांध, 5 तालाब
हमारे पास न ही कोई खास तकनीक थी और न ही फंड। सब कुछ ग्रामीणों की हिम्मत और उनकी मेहनत पर केंद्रित था।
रांची, [विनोद श्रीवास्तव]। सिमोन उरांव एक ऐसा नाम, जो घर से तो निकलता है अकेले, परंतु रास्ते में जुड़ते जाते हैं लोग और बनता जाता है कारवां। सिमोन की खासियत ही कुछ ऐसी है कि बेड़ो प्रखंड के दर्जनों गांवों के लोग ही नहीं, स्थानीय प्रशासन, यहां तक की सरकार भी उनकी इस खासियत की मुरीद है। अपने दम पर उन्होंने 'साथी हाथ बढ़ाना' का नारा दिया और ग्रामीणों के सहयोग से तीन-तीन बांध, पांच तालाब और कुओं की लंबी श्रृंखला खड़ी कर दी। महज साक्षर भर होकर उन्होंने जल प्रबंधन के क्षेत्र में जो कर दिखाया है, वह सिर्फ बेड़ो के लिए ही नहीं, पूरे राज्य के लिए भी नहीं, पूरे राष्ट्र के लिए विकास का पैमाना बन सकता है।
पानी के बेतरतीब बहाव की वजह से जहां बरसात के दिनों में सैकड़ों एकड़ जमीन पानी में डूबे रहते थे, वहीं बरसात समाप्त होने के बाद सुखाड़ का आलम। रोटी की जुगाड़ में पलायन इन गांवों की कहानी थी। तब सिमोन की उम्र तकरीबन 12-15 की रही होगी। पूर्वजों के अनुभव की पाठशाला में कुछ इस तरह पके कि गांव के लिए मिसाल बन गए। ग्रामीणों की दुर्दशा देख उन्होंने लोगों को गोलबंद करना शुरू किया। लोगों की मेहनत रंग लाई और बांध बनकर तैयार। मिट्टी का क्षरण न हो, सो पौधे भी साथ-साथ लगाते चले गए। बांध तैयार हुए तो सैकड़ों एकड़ भूमि खेती के योग्य बन गई। जहां एक फसल नहीं होती थी, सिंचाई सुविधा बहाल हो जाने के बाद लोग तीन-तीन फसल लेने लगे। फिर पलायन क्यों, देखते ही देखते लोगों का सामाजिक-आर्थिक स्तर बढ़ता चला गया। जिन ग्रामीणों की भूमि जलाशयों के निर्माण में चली गई, उन परिवारों को मत्स्य पालन से जोड़ दिया।
विस्थापन के बाद पुनर्वास की यह बानगी उन नीति निर्माताओं के लिए आईना साबित हो सकता है, जिनकी अदूरदर्शिता की वजह से लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। सिमोन ने लगभग चार किलोमीटर की परिधि में फैले वनक्षेत्र पर गांव के ही लोगों का पहरा बिठा दिया, ताकि माफिया की चंगुल से वन एवं पर्यावरण की रक्षा हो सके। कई स्तर पर सम्मानित किए जा चुके सिमोन की तकनीक पर आज विदेशों में जहां शोध हो रहे हैं, वहीं प्रबंधन के छात्र और कृषि विशेषज्ञों का जत्था उनसे सीख रहा है। सिमोन ने एक नारा बुलंद किया है, 'देखो, सीखो, करो, खाओ और खिलाओ'। सिमोन के इस नारे में छिपी है विकास की तस्वीर, जो राष्ट्र के नवनिर्माण में बन सकता है मील का पत्थर।
बकौल सिमोन, 'पानी के बेतरतीब बहाव की वजह से जहां बरसात के दिनों में सैकड़ों एकड़ भूमि जलमग्न रहा करती थी, वहीं बरसात के बाद सुखाड़ का आलम। रोटी के जुगाड़ में पलायन बेड़ो प्रखंड के नरपत्रा, झरिया, खरवागढ़ा, जाम टोली, वैद्यटोली, खक्सी टोला समेत आसपास के दर्जनों गांवों की कहानी थी। गांव में जल प्रबंधन का अभाव इसकी मूल वजह थी। उस समय मेरी उम्र तकरीबन 12-15 की रही होगी। खेती-बारी ही आजीविका का इकलौता साधन था, परंतु तब दो जून की रोटी का जुगाड़ भी बड़ा सवाल था। 60 के दशक में कुदाल-फावड़े के साथ जो खेतों को समृद्ध करने उतरा, आज भी उसी काम में जुटा हूं। जमीन सोना है और फसल असली रत्न। पूर्वजों की पाठशाला में मिली इस सीख को हमने ग्रामीणों के बीच बांटा। फिर मेहनत की बदौलत गांव की तस्वीर बदलने की समेकित योजना तैयार की। काम मुश्किल था, परंतु ग्रामीणों के सहयोग से मंजिल मिलती गई। लगभग दशक भर की कड़ी मेहनत के बाद पहले नरपत्रा, फिर झरिया और फिर खरवागढ़ा बांध बनकर तैयार हो गया। इससे जहां सैकड़ों एकड़ भूमि डूब क्षेत्र से बाहर निकल गई, वहीं बांध बन जाने से पानी के भंडारण की समस्या दूर हो गई।'
उन्होंने बताया, 'ग्रामीणों के सहयोग से इस बांध के सहारे 5500 फीट लंबी नहर निकाली गई। फिर क्या फसलें लहलहा उठीं। ग्रामीणों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। फिर वैसे क्षेत्र जहां बांध का पानी नहीं पहुंच सकता था, ग्रामीणों सहयोग से पांच तालाब और 10 कुएं खोद डाले गए। आजादी से पहले और आजादी के बाद बांध निर्माण की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से उत्पन्न विस्थापन की समस्या से सबक लेते हुए हमने बांध का निर्माण सुनियोजित तरीके से करने की कोशिश की। हमारे पास न ही कोई खास तकनीक थी और न ही फंड। सब कुछ ग्रामीणों की हिम्मत और उनकी मेहनत पर केंद्रित था। मिट्टी का क्षरण न हो, सो बांध के किनारे-किनारे पौधे लगाते चले गए। बांध बनाने, जलाशयों के निर्माण आदि में में जिन 30 किसान परिवारों की जमीन गई, पुनर्वास के तौर पर उन्हें मत्स्य पालन से जोड़ दिया।
सिमोन ने दुखी मन से कहा, 'राज्य में आज कई बड़ी-बड़ी परियोजनाएं सिर्फ इसलिए अधर में लटकी हैं कि ग्रामीण अपनी जमीन नहीं देना चाहते। बात कुछ हद तक सही भी है। अगर सवाल रोजी-रोटी छिन जाने का हो तो विरोध स्वाभाविक है। पूर्व की परियोजनाओं के बाद हुए विस्थापन और पुनर्वास में कोताही के कई किस्से हमारे सामने हैं। तकलीफ इस बात की है कि जो योजनाएं ग्रामीणों के साथ मिल बैठकर गांव की परिस्थितियों के हिसाब से बननी चाहिए, मीलों दूर बन रही है। इससे न तो ग्रामीणों के साथ इंसाफ हो पाता है और न ही परियोजनाओं के साथ। अरबों रुपये यूं ही बर्बाद हो रहा और नतीजा सिफर। नगड़ी की समस्या आज स्थानीय प्रशासन और सरकार के लिए सिर्फ इसलिए नासूर बन गई है कि भू-अधिग्रहण के वक्त और बाद की परिस्थिति का सही आकलन नहीं हुआ। कहते हैं जब जागो, तभी सवेरा। योजनाबद्ध तरीके से सरकार आगे बढ़े तो ग्रामीण उनके साथ हो जाएंगे। विकास कौन नहीं चाहता, इसकी जरूरत किसे नहीं है।'
न्होंने कहा कि पूर्वजों की पाठशाला में हमें एक और सीख मिली है। वह है 'देखो, सीखो, करो, खाओ और खिलाओ'। इस भावना के साथ अगर हम आगे बढ़े तो गांवों की तस्वीर बदल जाए। जब ग्रामीण समृद्ध होंगे। उनका आर्थिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। समाज में व्याप्त विसंगतियां स्वत: दूर होती चली जाएंगी। धरती सोना है। यह जमीन फसाद की जड़ भी है और विकास का साधन भी। यह तो हमारा नजरिया है कि हम इसे किस रूप में लेते हैं। यह स्थापित सत्य है कि 'अगर आदमी जमीन से लड़ेगा तो विकास होगा और आदमी आदमी से लड़ेगा तो विनाश होगा।' जीवन संघर्ष का मैदान है। अगर आप इस पथ पर चलेंगे तो कांटे भी मिलेंगे, परंतु अगर आप सही मार्ग पर हैं तो जीत आपकी ही होगी, आप पराजित कदापि नहीं हो सकते।
सिमोन ने बताया कि जंगल के बीच से नजर निकालने में उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्होंने बताया कि जब ग्रामीणों के सहयोग से हम जंगल से होकर नहर निकाल रहे थे, सरकारी महकमे के विरोध का सामना करना पड़ा। हम पर मुकदमे भी हुए, परंतु मानव मूल्यों के संवद्र्धन के लिए हमारे काम की सराहना हुई और फिर उसी सरकार ने मुकदमा वापस भी लिया। चाहे वह गांव हो, राज्य हो या फिर देश। विकास के मामले में सबको एकजुट रहना होगा। सोचने वाली बात यह है कि अगर ग्रामीण अपने स्तर से तालाब, कुओं का निर्माण करते हैं तो उसमें सालों भर पानी रहता है, परंतु यही काम अगर सरकारी स्तर पर हुआ हो तो कई मामलों में इसके उद्देश्य पूरे नहीं होते। सहकारिता जो कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में मील का पत्थर साबित हो सकती है, हाशिये पर क्यों है? समय बीत जाने के बाद किसानों को बीज, खाद क्यों मिल रहा? कहते हैं गांव खुशहाल होगा तो देश समृद्ध होगा, फिर सरकार किसानों की मांग को ध्यान में रखकर काम क्यों नहीं करती? सवाल और भी कई है, परंतु सबसे बड़ा सवाल यह कि जबतक हम जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर बंटते रहेंगे, बांटे जाते रहेंगे, विकास की बात बेमानी ही रहेगी। हम ग्रामीणों के काम को देखने लोग देश के कोने-कोने, यहां तक कि विदेशों से भी आते हैं। उनकी नजर में मेरे सपनों का घर किसी इमारत से कम नहीं होता, अत्याधुनिक गाड़ी-घोड़े की उम्मीद के साथ जब वे हमसे गांव की पगडंडियों पर मिलते हैं, मैं कहता हूं आज इन खेतों में जो दो-दो, तीन-तीन फसलें लहलहा रहीं है। दो फसल हुई तो मानों हमने दो मंजिले घर का निर्माण कर लिया, तीन फसलें लहलहाई तो हम मालामाल हो गए। कभी-कभी सरकारी महकमा भी पहुंच जाता है।
उन्होंने बताया कि एक बार रांची के एक उपायुक्त ने कहा क्या चाहिए, हमने कहा- 'मंदिर'। तब वे भौंचक रह गए थे। हमने कहा एक तालाब बनवा दो। उन्होंने तत्काल 84 हजार रुपये की स्वीकृति दे डाली। आज वहां ग्रामीण स्नान-ध्यान करते हैं, नाना प्रकार के कार्यों में इसका उपयोग होता है, हुआ न मंदिर का निर्माण। एक अन्य उपायुक्त ने 5,500 फीट लंबी नहर को पक्का करने के लिए 23 लाख रुपये दिए, हमने 13 लाख रुपये में ही इसका निर्माण कर डाला। शेष 10 लाख रुपये अन्य नहर का पक्कीकरण हो रहा है। इसमें दो मत नहीं कि सरकार के सहयोग से योजनाओं को बल मिलता है। हमें सोचना होगा कि अन्न का कारखाना कोई और नहीं, किसान हैं। पैसे से सारी सुख-सुविधाएं खरीदी जा सकती है, परंतु जब अनाज नहीं होगा तो फिर किस काम की धन-दौलत। खेतों को समृद्ध करना वर्तमान की मांग है। हमें 'हम आपके, आप हमारे' वाले सिद्धांत पर अमल करना होगा। सुखी और समृद्ध राष्ट्र की परिकल्पना को धरातल पर उतारने के लिए सभी को एक मंच पर आना होगा।
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