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बीएमसी चुनावः भाजपा की एकला चलो की रणनीति सफल, जानिए अब क्या होगा

बीएमसी पर काबिज होने के लिए भाजपा-शिवसेना को अापस में मिलना होगा या अपनी कट्टर विरोधी कांग्रेस से हाथ मिलाना होगा क्योंकि चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Thu, 23 Feb 2017 01:43 PM (IST)Updated: Thu, 23 Feb 2017 11:14 PM (IST)
बीएमसी चुनावः भाजपा की एकला चलो की रणनीति सफल, जानिए अब क्या होगा
बीएमसी चुनावः भाजपा की एकला चलो की रणनीति सफल, जानिए अब क्या होगा

 नई दिल्ली(जेएनएन)।महाराष्ट्र में भाजपा अपनी एकला चलो की रणनीति में सफल होती दिख रही है। अपने पुराने सहयोगी शिवसेना से अलग होने के बावजूद राज्य में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया। विधानसभा चुनाव में जबरदस्त प्रदर्शन के बाद भाजपा ने नगरीय निकाय चुनाव में भी अपना झंडा बुलंद किया।

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बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) चुनाव के लिए राहें अलग करने वाली शिवसेना और भाजपा अब ऐसे मोड़ पर पहुंच गई हैं, जहां एक-दूसरे के साथ के बिना निगम पर काबिज होना मुश्किल होगा। दोनों को नगर निगम पर काबिज होने के लिए या तो आपस में या फिर अपनी कट्टर विरोधी कांग्रेस से हाथ मिलाना होगा क्योंकि चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। अब इसे मजबूरी कहें या कुछ और, पर इस बात की पूरी संभावना है कि दोनों पार्टियां फिर साथ आ जाएं।

बीएमसी में सत्ता का गणित
227 सीटों वाले बीएमसी में मेयर पद के लिए 114 पार्षदों का समर्थन जरूरी है। भाजपा और शिवसेना अगर मिल जाती हैं तो गठबंधन का आसानी से बीएमसी पर कब्जा हो जाएगा। अगर भाजपा को 32 और पार्षदों के समर्थन की दरकार है तो शिवसेना को 30। शिवसेना को दरकिनार करने पर भाजपा को निर्दलियों के साथ-साथ एनसीपी और एमएनएस को भी अपने पाले में लाना होगा। शिवसेना और कांग्रेस अगर साथ आते हैं तो उनका आसानी से बीएमसी पर कब्जा हो जाएगा। अगर कांग्रेस भी शिवसेना के साथ नहीं आती तो उद्धव को भी निर्दलियों के साथ-साथ एमएनएस और एनसीपी के समर्थन की दरकार होगी। इस तरह बीएमसी में सत्ता के समीकरण काफी उलझे हुए और दिलचस्प हो गए हैं।

  मराठी अस्मिता का नारा आया काम

 मराठी मानुष और मराठी अस्मितका नारा बीएमसी चुनाव में एक बार फिर उठा। शिवसेना ने बड़ी सावधानी के साथ इस नारे को बुलंद किया। शिवसेना रणनीतिकारों का यकीन हो चला था कि भाजपा से अलग रास्ता अख्तियार करने के बाद ये जरूरी है कि वो अपने परंपरागत वोटों को सहेज सके। मनसे के उदय के बाद मराठी मानुष का जो तबका शिवसेना से दूर जा चुका था उन्हें अपने पाले में करने के लिए शिवसेना कार्यकर्ताओं ने जीतोड़ मेहनत की। मराठी मानुष के भावनाओं को जिस ढंग से मनसे ने हवा दी उसे पूरी करने में वो नाकाम रहे। मनसे से मोहभंग होने के बाद मराठी मतदाताओं को शिवसेना के रूप में एक बेहतर विकल्प दिखा। 2012 में शिवसेना का ग्राफ जो 100 सीटों से नीचे सिमट कर रह गया था उसमें एक बेहतरीन बदलाव आया।


भाजपा की रणनीति सफल

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही शिवसेना और भाजपा के रिश्ते सहज नहीं रहे। गैर कांग्रेस-गैर एनसीपी के नाम पर लोगों के बीच जाने वाली भाजपा और शिवसेना के सामने इकठ्ठा सरकार बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।लेकिन दोनों दलों की महत्वाकांक्षा समय समय पर एक दूसरे को चोट पहुंचाती रही। कई बार ऐसे मौके आए जब सत्तासीन दोनों दल एक दूसरे के विरोध में खुलेआम उतर गए। लेकिन बीएमसी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा ने खुलेआम मोर्चा खोला। अपने खिलाफ भाजपा के बगावती बोल के बाद शिवसेना ने भी साफ कर दिया कि अब रास्ते जुदा हो चुके हैं। दोनों दलों में आपसी मनमुटाव के बाद भाजपा ने शिवसेना से अलग जाने का फैसला किया। बीएमसी चुनाव में जहां शिवसेना 84 सीट पायी है, वहीं भाजपा उससे मात्र 2 सीट कम 82 का अांकड़ा छू लिया है। 


कांग्रेस-एनसीपी का लचर प्रदर्शन

2012 के बीएमसी चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो कांग्रेस के खाते में 52 और एनसीपी के खाते में सात सीटें आई थीं। लेकिन इस चुनाव में जनता ने बुरी तरह से दोनों दलों को नकार दिया। कांग्रेस और एनसीपी दोनों दल बीएमसी में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शिवसेना को घेरने की कोशिश करते रहे। लेकिन शिवसेना ने पलटवार करते हुए कहा कि पिछली सरकार में जिस तरह से कांग्रेस और एनसीपी के लोग लूट में शामिल रहे हैं, उसे मुंबईकर भूले नहीं है। शिवसेना के नेता अपनी चुनावी सभाओं में हमेशा कहते रहे कि कांग्रेस हो या एनसीपी दोनों दलों को बयानबाजी करने का नैतिक अधिकार नहीं है। इस बार कांग्रेस 31 तो एनसीपी को मात्र 9 सीटें मिली है।

मराठी मानुष का मनसे से मोहभंग

ठाकरे परिवार में अंतर्कलह और मराठी मानुष का नारा बुलंद करने वाली राज ठाकरे की पार्टी मनसे ने दावा किया कि मुंबई के समग्र विकास में वो बेहतर रोल अदा कर सकते हैं। मनसे के नेता बार बार कहा करते थे कि सत्ता में आने के बाद जिन रोजगारों पर उत्तर भारतीयों का कब्जा है उसे वो मराठी मानुष को मुहैया कराएंगे। 2012 के चुनाव में ये उम्मीद की जा रही थी कि मराठी मानुष 227 सीटों में कम से कम कम एक चौथाई सीटों पर मनसे को अपना समर्थन देंगे। लेकिन आंकड़े एमएनएस के लिए निराशाजनक रहे। 2017 के चुनाव में एक बार फिर मनसे ने मराठी मानुष का कॉर्ड खेला लेकिन आंकड़ों से ये साफ हो गया कि मराठी मानुष ने मनसे को नकार दिया। इस बार बीएमसी चुनाव में मनसे को 7 सीट पर ही संतोष करना पड़ा।

उद्धव का अखिलेश पर बयान शिवसेना के आया काम

उत्तर भारतीयों का मुद्दा मुंबई की राजनीति में हमेशा से काम करता रहा है। उत्तर भारतीय परंपरागत तौर से कांग्रेस को समर्थन देते रहे। लेकिन ठाकरे परिवार में अंतर्कलह और मनसे के उदय के बाद हालात बदले। मुंबई और महाराष्ट्र के दूसरे शहरों में उत्तर भारतीयों के साथ बदसलूकी का खासा खामियाजा 2012 के चुनाव में शिवसेना को उठाना पड़ा। 2012 के चुनाव में शिवसेना के पार्षदों की संख्या 100 के नीचे सिमट गई। मनसे और शिवसेना से खफा उत्तर भारतीयों के एक बड़े तबके ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। लेकिन 2017 आते आते हालात बदल गए। भाजपा से खटास होते रिश्ते के बाद शिवसेना के रणनीतिकारों को लगने लगा कि बीएमसी में अपने दम पर सत्ता में काबिज होने के लिए उत्तरभारतीयों का समर्थन मिलना जरूरी है। इस रणनीति के तहत शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने यूपी के सीएम अखिलेश यादव की प्रशंसा कर एक तीर से कई निशाने साधे और उत्तर भारतीय मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश की।

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