कश्मीर में फेल हो गया अलगाववादियों का नारा
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के प्रथम दो चरण में कश्मीरियों द्वारा आतंकी धमकियों व हुर्रियत के चुनाव बहिष्कार को न मानकर रिकॉर्ड संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचने के बाद अलगाववादी हल्के में ही नहीं, स्थानीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी चुनाव बहिष्कार की प्रासंगिकता को लेकर बहस शुरू हो गई है।
श्रीनगर [जागरण ब्यूरो]। जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के प्रथम दो चरण में कश्मीरियों द्वारा आतंकी धमकियों व हुर्रियत के चुनाव बहिष्कार को न मानकर रिकॉर्ड संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचने के बाद अलगाववादी हल्के में ही नहीं, स्थानीय बुद्धिजीवी वर्ग में भी चुनाव बहिष्कार की प्रासंगिकता को लेकर बहस शुरू हो गई है। सभी कश्मीर मुद्दे को चुनावी सियासत से अलग रखने पर तर्क देने लगे हैं।
राज्य में 87 में से 33 विधानसभा सीटों के लिए वोट पड़ चुके हैं। इन पर 70 फीसद मतदान हुआ है। हालांकि, हुर्रियत समेत कई अलगाववादी संगठनों में चुनावों को लेकर कोई एकराय नहीं है। कट्टरपंथी गिलानी सरीखे नेता जहां चुनाव बहिष्कार के समर्थक हैं, वहीं मीरवाइज मौलवी उमर फारूक खुद को इससे अलग रखने का प्रयास करते हुए लोगों को मतदान से दूर रहने की सलाह देते हैं। जमायत-ए-इस्लामी जैसे संगठन ने कहा कि चुनाव बहिष्कार का उससे वास्ता नहीं।
कश्मीर में सक्रिय विभिन्न आतंकी संगठनों के साझा मंच यूनाईटेड जिहाद काउंसिल (यूजेसी) के चेयरमैन व हिजबुल मुजाहिदीन के प्रमुख कमांडर सैयद सलाहुद्दीन ने भी हुर्रियत के सभी गुटों को सलाह दी कि वह चुनाव बहिष्कार की रणनीति पर नए सिरे से विचार करे।
वरिष्ठ पत्रकार रशीद अहमद के मुताबिक, यहां लोगों ने चुनावी सियासत को कश्मीर मसले के हल से जोड़ दिया है। ऐसा नहीं होना चाहिए। दोनों अलग मुद्दे हैं। 1947 से पूर्व 1936 के दौरान कांग्रेस व मुस्लिम लीग ने भी अंग्रेजी शासन व संविधान की शपथ लेकर ही चुनाव लड़ा था, पर तब किसी ने नहीं कहा कि भारतीयों ने अंग्रेजी राज पर मुहर लगाई है जबकि कश्मीर में लोगों की मतदान में हिस्सेदारी पर कहा जाता है कि उनको भारतीय संविधान और भारत ही चाहिए।
वरिष्ठ अलगाववादी नेता नईम खान की पत्नी डॉ. हमीदा नईम ने कहा, 1987 के चुनाव के बाद कुछ समय तक तो चुनाव बहिष्कार का नारा ठीक था, पर अब नहीं।लोग स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था को वोट डालने जाते हैं, जिनका कश्मीर समस्या से कोई सरोकार नहीं है।
कश्मीर मुद्दे के विशेषज्ञ प्रो. नूर बाबा ने कहा, हुर्रियत अगर चाहती है कि उसका एजेंडा चले तो उसे चुनाव बहिष्कार की सियासत छोड़नी चाहिए। जनता रोजमर्रा की प्रशासनिक समस्याओं के हल की उम्मीद में वोट डालने जाएगा, चाहे बहिष्कार हो या न हो।
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