...जब राजीव गांधी सरकार ने SC से मिली जीत को इस तरह बदला था हार में
शाहबानो के बेटे जमील अहमद ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ। किसी मुस्लिम महिला को भरण-पोषषण दिलाने का यह एक अहम फैसला था।
नई दिल्ली, जेएनएन। सुप्रीम कोर्ट ने एक साथ तीन तलाक पर छह महीने के लिए रोक लगा दी है और केंद्र सरकार से इस पर कानून बनाने के लिए कहा है। मुस्लिम महिलाओं के लिए यह एक बड़ी जीत है, जिसकी शुरुआत काफी पहले हो गई थी। इंदौर की शाहबानो ने इस संघर्ष की शुरुआत की थी। शाहबानो को उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने वर्ष 1978 में तलाक दे दिया था।
तलाक के वक्त शाहबानो के पांच बच्चे थे। इनके भरण-पोषण के लिए उन्होंने निचली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया, लेकिन 1980 में मुस्लिम समाज के लगभग सारे पुरुष शाहबानो की अपील के खिलाफ थे। इसी का ख्याल करते हुए तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला अधिनियम पारित कर दिया। इसके आधार पर शाहबानो के पक्ष में सुनाया गया फैसला कोर्ट ने पलट दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने जब शाह बानो के पति मोहम्मद अहमद खान से पूछा कि आखिर वे भरण-पोषषण भत्ता क्यों नहीं देना चाहते, तो खान ने कहा, 'मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाकशुदा महिलाओं को ताउम्र भरण-पोषषण भत्ता दिए जाने का कोई प्रावधान नहीं है।' वहीं बानो के वकील का तर्क था, 'दंड प्रक्रिया संहिता देश के हर नागरिक (चाहे वह किसी भी धर्म का हो) पर समान लागू होती है।' कोर्ट ने शाह बानो की दलील मानते हुए 23 अप्रैल 1985 को उनके पक्ष में फैसला दे दिया। मुस्लिम धर्मगुरओं ने फैसले के विरोध में आवाज बुलंद कर दी। भारी दबाव के चलते तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को मुस्लिम महिला अधिनियम पारित करना पड़ा। इस कारण शाह बानो जीतकर भी हार गई।
शाहबानो के बेटे जमील अहमद ने साझा की यादें
जमील बताते हैं, '38 साल पहले जब कोर्ट ने अम्मी (शाह बानो) को भरण-पोषण के 79 रुपए अब्बा से दिलवाए थे, तो लगा था जैसे दुनियाभर की दौलत मिल गई। जो खुशी उस समय मिली थी, वही आज फिर महसूस हो रही है। जब फैसले को लेकर विवाद बढ़ने लगा तो अम्मी इतनी आहत हुई कि उन्होंने भरण पोषण की राशि ही त्याग दी। सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक ठहराकर मुस्लिम महिलाओं के हक में फैसला सुनाया है। जो मशाल 38 साल पहले अम्मी ने जलाई थी, उसकी रोशनी आज पूरे देश में फैल रही है।'
वकील थे शाहबानों के पति
जमील ने बताया कि अब्बा एमए खान जाने-माने वकील थे, उनकी दो पत्नियां थीं। इनमें मेरी अम्मी शाह बानो बड़ी थीं। दो पत्नियां होने से वालिद सामंजस्य नहीं बैठा पाते और विवाद होता। इसी के चलते 1978-79 में वालिद ने अम्मी को तलाक दे दिया। वह बच्चों को लेकर अलग रहने लगीं। वालिद शुरुआत में तो खाने-खर्चे का इंतजाम कर देते थे, लेकिन बाद में ध्यान देना बंद कर दिया। परेशान होकर अम्मी ने जिला कोर्ट में भरण-पोषण केस दायर कर दिया। एक मुस्लिम महिला का भरण-पोषषण के लिए कोर्ट तक पहुंचना समाज को नागवार गुजरा। विरोध होने लगा। लोग ताने कसने लगे। अम्मी ने हिम्मत नहीं हारी, वे लड़ीं और कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला देते हुए अब्बा को हुक्म दिया कि वे हर महीना 79 रुपए खर्च उन्हें दें। अब्बा ने जिला कोर्ट के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी। हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को कायम रखा और रकम को बढ़ा दी। अब्बा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 1984 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों कोर्ट के फैसले को जस का तस रखते हुए भरण-पोषषण कायम रखा।
जमकर हुआ विरोध, पीएम ने मिलने बुलाया
जमील अहमद ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पूरे देश में विरोध हुआ। किसी मुस्लिम महिला को भरण-पोषषण दिलाने का यह एक अहम फैसला था। विरोध कर रहे लोगों का कहना था कि शरियत के हिसाब से तलाक के बाद भरण-पोषण का कोई रिवाज नहीं है। मामला इतना बढ़ा कि प्रधानमंत्री तक को दखल देना पड़ा। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अम्मी शाह बानो को मिलने बुलाया। मैं उनके साथ गया। मुलाकात करीब आधे घंटे की थी। बाद में सरकार ने मुस्लिम महिला प्रोटेक्शन एक्ट का मसौदा तैयार किया। विवादों से अम्मी इतनी आहत हुईं कि उन्होंने कोर्ट में जीतने के बावजूद भरण-पोषण की रकम त्याग दी।
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