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'मुस्लिम महिलाओं के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाती रही कांग्रेस'

मुस्लिम महिलाओं के लंबे संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिए जाने से दूसरी कुरीतियों के खात्मे का रास्ता भी खुल गया है।

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 24 Aug 2017 09:42 AM (IST)Updated: Thu, 24 Aug 2017 09:45 AM (IST)
'मुस्लिम महिलाओं के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाती रही कांग्रेस'
'मुस्लिम महिलाओं के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाती रही कांग्रेस'

प्रमोद भार्गव

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मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक की कुरीति से पीड़ित सायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में दस्तक देने का वीड़ा उठाया और समाज में व्याप्त बुराई को जमींदोज कर दिया। पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत से माना कि एक झटके में तीन बार तलाक बोलकर शादी तोड़ने की रवायत मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन है। इससे यह बहस भी आगे बढ़ी कि क्या यह प्रथा इस्लाम धर्म का अनिवार्य हिस्सा है? पीड़ित महिलाओं समेत मुस्लिम पुरुषों का एक बड़ा तबका यह मान रहा था कि तीन तलाक की रवायत मजहब या कुरान का बुनियादी हिस्सा नहीं है। इसी मान्यता की तस्दीक सुप्रीम कोर्ट ने कर दी है। अब इस फैसले को किसी एक पक्ष की जय-पराजय के रूप में देखने की बजाय इसे मुस्लिम समाज सहित अन्य धर्मावलंबी समुदायों में मौजूद कुरीतियों के उन्मूलन के रूप में देखने की जरूरत है। इससे कुरीतियां तो दूर होंगी ही, समान नागरिक संहिता बनाने की राह भी मिलेगी। अच्छी बात यह रही कि नरेंद्र मोदी सरकार ने तीन तलाक के खिलाफ अपना पक्ष अदालत में मजबूती से रखा।

दरअसल संविधान में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत भी यही अपेक्षा रखता है कि समान नागरिकता लागू हो, जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ जाए, जो सभी धर्मों, संप्रदायों और जातियों पर लागू हो। आदिवासी और घूमंतू जातियां भी इसके दायरे में लाई जाएं। मगर इसमें सबसे बड़ी चुनौतियां विभिन्न धर्मों के वे पृथक कानून और जातीय मान्यताएं हैं, जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे अधिकारों की दीर्घकाल से चली आ रही धार्मिक परंपराओं को कानूनी ढांचा प्रदान करती हैं। इनमें सबसे ज्यादा भेद महिलाओं से बरता जाता है। एक तरह से यह लोक प्रचलित मान्यताएं महिला को समान हक देने का विरोध करती हैं।

मुस्लिमों के विवाह व तलाक कानून महिलाओं की अनदेखी करते हुए पूरी तरह पुरुषों के पक्ष में हैं। ऐसे में इन विरोधाभासी कानूनों के चलते न्यायपालिका को सबसे ज्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है। अदालत में जब पारिवारिक विवाद आते हैं तो अदालत को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का धर्म कौन सा है और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर वह विवाद का निराकरण करती है। इससे व्यक्ति का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद 44 की भावना का भी अनादर होता है। दरअसल औपनिवेशिक भारत में 1772 में सभी धार्मिक समुदायों के लिए विवाह, तलाक और संपत्ति के उत्तराधिकार से संबंधित कानून बने थे, जो आजादी के बाद भी अस्तित्व में बने हुए हैं। वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परंपराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंतत: कानूनी असमानता को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम कर रहे हैं। इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें आती हैं। इस जटिलता को सरकारें समझती हैं।

हालांकि संविधान के भाग-चार में उल्लेखित राज्य-निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है। इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के संपूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता है। मगर यह प्रावधान विरोधाभासी है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद-26 में विभिन्न धर्मावलंबियों को अपने व्यक्तिगत मामलों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए हैं, जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं।

विभिन्न पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून उन्हीं समाजों में चल सकता है, जहां एक धर्म के लोग रहते हों। भारत जैसे बहुधर्मी देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता का मतलब ही होता है कि विभिन्न धर्म के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट मिले। इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति, बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिक बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं। इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली तो हो सकती है, किंतु समान नागरिक संहिता संभव नहीं है। लिहाजा देश में समान ‘दंड प्रक्रिया संहिता’ तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू है, लेकिन समान नागरिक संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के बावजूद संभव नहीं हुए हैं। इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती रही है। इस बाबत सबसे अहम 1985 में आया इंदौर का ‘मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम’ मुकदमा है। इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में सुनाया था। अदालत ने यह चिंता भी प्रकट की थी कि ‘संविधान का अनुच्छेद-44 अभी तक लागू नहीं किया गया।’

अनुच्छेद-44 को लागू करने की बात तो छोड़िए, इस फैसले पर जब मुस्लिम समाज ने नाराजी जताई तो प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ राजीव गांधी सरकार के हाथ-पांव फूल गए। आनन-फनन में मुस्लिम कट्टरपंथियों की मांग स्वीकारते हुए ‘मुस्मिल महिला विधेयक-1986‘ संसद से पारित कर दिया गया। इसके बाद से लेकर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आने तक मौलवियों की ओर से एक रटा वाक्य बोला जाता रहा कि तीन तलाक अल्लाह का कानून है, इसलिए न तो इसमें अब तक बदलाव हुआ है और न ही इसे बदला जा सकता है।

वहीं सऊदी अरब, मलेशिया, पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत करीब 20 इस्लामिक देशों में तीन तलाक को अवैध करार दिया जा चुका है। हालांकि कई सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत जता रहे थे। उनकी मांग है कि तीन तलाक, हलाला और बहुविवाह पर रोक लगे। लंबे समय तक देश पर काबिज रही कांग्रेस भी कट्टरपंथियों के पक्ष में दिखती रही।

अब जरूर कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को कहना पड़ा है कि जब अनेक मुस्लिम देशों में ऐसा नहीं है तो इसकी भारत में भी जरूरत नहीं है। मगर हकीकत यह है कि खुर्शीद समेत उनकी पार्टी पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के नाम पर घड़ियाली आंसू तो बहाती रही, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार की तरह तीन तलाक की कुरीति समाप्त करने के पक्ष में खड़ी नहीं हो पाई। देश की शीर्ष अदालत ने स्थिति साफ कर दी है, इसीलिए अब संसद से कानून की भी दरकार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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