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राजनेताओं को ही बनाया जाए राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का मानना है कि राजनीति से बाहर के लोगों को देश का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति नहीं बनाया जाना चाहिए। प्रणब के अनुसार, लोक सभा और राज्य विधान सभा के पीठासीन अधिकारियों के मामलों में भी इसी नीति का पालन किया जाना चाहिए।

By Murari sharanEdited By: Published: Sun, 14 Dec 2014 08:30 PM (IST)Updated: Sun, 14 Dec 2014 08:34 PM (IST)
राजनेताओं को ही बनाया जाए राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति

नई दिल्ली। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का मानना है कि राजनीति से बाहर के लोगों को देश का राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति नहीं बनाया जाना चाहिए। प्रणब के अनुसार, लोक सभा और राज्य विधान सभा के पीठासीन अधिकारियों के मामलों में भी इसी नीति का पालन किया जाना चाहिए। राजनीति से बाहर के प्रतिष्ठित लोग जब इन संवैधानिक पदों पर आते हैं, तो उनके पास जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में संतुलित निर्णय लेने की क्षमता का अभाव हो सकता है।

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अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक 'द ड्रामैटिक डिकेड : द इंदिरा गांधी ईयर्स' में प्रणब ने यह विचार व्यक्त किया है। उल्लेखनीय है कि अब तक एस. राधाकृष्णन और एपीजे अब्दुल कलाम राजनीतिक पृष्ठभूमि से बाहर के राष्ट्रपति रहे हैं। इसी तरह राधाकृष्णन, जीएस पाठक और एम. हिदायतुल्ला ऐसे उप राष्ट्रपति हुए हैं, जिनकी पृष्ठभूमि राजनीतिक नहीं थी।

राष्ट्रपति ने अपनी बातों के समर्थन में 1980 की एक घटना का जिक्र किया है। जनता पार्टी के विफल प्रयोग के बाद इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गई थीं, लेकिन राज्य सभा में उनको बहुमत नहीं था। 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने कांग्रेस की कई राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। अब कांग्रेस 'जैसे को तैसा' की नीति पर चलते हुए जनता पार्टी की राज्य सरकारों को बर्खास्त करना चाहती थी। राष्ट्रपति ने लिखा है कि इससे संबंधित प्रस्ताव को राज्य सभा से पारित कराने के लिए कांग्रेस के पास बहुमत नहीं था, लेकिन हम हार से बचना चाहते थे।

प्रणब ने लिखा है, 'मैं ऊपरी सदन में जीत के प्रति आश्वस्त था। लेकिन एक तरफ मुझे विपक्ष की दादागिरी नापसंद थी, तो दूसरी तरफ सभापति एम. हिदायतुल्ला को भी मैं पसंद नहीं कर रहा था। इसका कारण ये था कि हिदायतुल्ला सदन के संचालन से संबंधित सभी अधिकार अपने पास ही रखना चाहते थे। पीठासीन अधिकारी की यह भूमिका सिद्धांतत: सही होने पर भी व्यावहारिक रूप से सही नहीं है।'अनुभवी सांसद रह चुके प्रणब के मुताबिक, संसद कोई बहसबाजी का अड्डा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संस्था है। इसमें राष्ट्रीय कार्यकलाप परिलक्षित होना चाहिए और इसे समकालीन राजनीतिक शक्तियों से संचालित होना चाहिए।

विधायी कामकाज में राज्य सभा की बहुत ही संतुलित भूमिका होती है। यह दूसरे दर्जे की संस्था नहीं है, लेकिन संख्या के बल पर किसी पार्टी को यहां सत्ताधारी दल की इच्छा के खिलाफ विघटनकारी भूमिका निभाने की इजाजत भी नहीं दी जा सकती है। प्रणब ने लिखा है कि भारत में पीठासीन अधिकारियों या राजनीतिक दलों के समर्थन से निर्वाचित किसी व्यक्ति को लेकर यह उम्मीद भी नहीं की जाती कि उसका कोई राजनीतिक रुझान ही नहीं होगा। हालांकि वे निष्पक्ष बने रहने का प्रयास जरूर करते हैं, लेकिन उनकी निष्पक्षता हास्यास्पद स्तर तक नहीं पहुंच जानी चाहिए।

प्रणब ने राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के मामले में सदन में हुई बहस का भी उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि वरिष्ठ भाकपा सांसद भूपेश गुप्ता द्वारा सरकारी प्रस्ताव के खिलाफ लाए गए संवैधानिक प्रस्ताव को कांग्रेस (अर्स) की मदद से पराजित किया जा सका। कांग्रेस (अर्स) कुछ समय पहले ही कांग्रेस से टूटकर अलग हुई थी।


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